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________________ 32 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 पर आत्यन्तिक क्षय का अर्थ है प्राचीन कर्मों के नाश के साथ-साथ नवीन कर्मों का न बंधना। यहां कर्म के परिप्रेक्ष्य में मूल संकेत मोहकर्म की ओर ही है, वही दुःख का कारण बनता है तथा उसके समाप्त होने पर ही सदा सुख प्राप्त होता है, जो कि आत्मा का अपना स्वरूप है। भौतिक सुख-दुःख से परे समताभाव की परिणति अर्थात् गीता की स्थितप्रज्ञता, महावीर की समता और आधुनिक भाषा में संवेग से परे की स्थिति, जो कि उच्चतर चेतना का स्तर (higher consciousness) कहा जाता है, जहाँ संवेग परिपक्व (matter) हो जाते हैं। परिपक्व अवस्था में संतुलन कायम हो जाता है। संवेग की उत्तेजक स्थिति समाप्त हो जाती है। गीता में भी इसी मोह की ओर संकेत किया गया है तथा अर्जुन के मुख से उसका चित्रण बहुत ही हृदयस्पर्शी करवाया गया है। विषादमय अहम् आत्मविश्लेषण की ओर प्रवृत्त होता है। एक ओर तो निम्न स्तरीय मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां खींचती हैं और दूसरी और आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ। इस प्रकार अर्जुन के मन में जो द्वन्द्वात्मक स्थिति है, वह व्यक्ति के मन में विरोधी भावों के संघर्ष के कारण उपस्थित मनोदशा का प्रतीक है। यह स्थिति प्रत्येक मनुष्य के मन में उत्पन्न होती है। इसलिए यह जीवन की प्रमुख समस्या है, जिसके समाधान का प्रयास गीता करती है। इस प्रकार गीता के प्रथम अध्याय में विषाद, निराशा और दु:ख के कारणों की भूमिका प्रस्तुत की गई हैं। गीता एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है तथा इसमें भारतीय मनोविज्ञान के अनेक तथ्य उजागर हुए हैं। यदि वर्तमान शिक्षा में ऐसे योग ग्रन्थों का अध्यापन, प्रशिक्षण कार्य हो तो न केवल शिक्षक वर्ग ही लाभान्वित होगा। अपितु पूरी मानव जाति को लाभ होगा तथा उन चिन्तकों को नया आलोक मिलेगा जो मानव के आध्यात्मिक आधार से प्रायः अपरिचित हैं। आध्यात्मिकता का मूल आधार है कर्म सिद्धान्त को समझना। मोह तथा मोह के व्यापार को समझना ताकि मानव मन की गुत्थियों को सुलझाया जा सके। मोह वह है जो मोहित करता है। इससे चेतना प्रभावित हो जाती है और तदनुसार कार्य करने को मजबूर हो जाती है। जैसे मद्यपान करने वाले का विवेक खो जाता है, वैसे ही मोह एक नशा है, जिससे व्यक्ति को हेय और उपादेय की पहचान नहीं रह पाती है। आधुनिक मनोविज्ञान में ऐसा कहा गया है कि संवेग की स्थिति में मस्तिष्क उससे प्रभावित होकर प्रतिक्रिया करता है। उस समय विवेक चेतना अर्थात् करणीय और
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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