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________________ 28 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 यह ज्ञात होना चाहिए कि मन की शुद्धि, क्षमा-याचना का भाव, दोषों की आलोचना के साथ निर्दोष व्रताराधना जिसने की है, वह भले ही अंत में आहार का त्याग कर पाया हो, वह आराधक ही है। 'संथारा' शब्द जैन धर्म में इतना महिमामण्डित हो गया है कि हर किसी की भावना रहती है कि हम अपने प्रिय मृत व्यक्ति के साथ 'संथारा साधक' विशेषण अवश्य लगाएं। इसी कारण बड़े उपहास पूर्ण घटना चक्र घूमते रहे हैं। कोई साधु-साध्वी कई दिनों से बेहोश है, कोमा की स्थिति में है, संत और समाज सेवा से उकता गए हैं, पिण्ड छुड़ाने के लिए उसे भी संथारे का प्रत्याख्यान करवा दिया जाता है। कोई साधु, साध्वी अस्पताल के वातानुकूलित कमरे में ग्लूकोज की ड्रिप पर है, रात्रि को इन्जेक्शन लग रहे हैं, शरीर पूरा हो रहा है, तब शिष्यवृन्द 'वोसिरामि-वोसिरामि' कहकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हैं। मन में एक सांत्वना है कि हमने अंतिम पाथेय दे दिया और फिर खुलकर प्रचार कर दिया कि गुरुजी या साध्वीजी संथारे में गई हैं। शिष्य बेचारे लाचार हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते कि गुरु महाराज ने संथारा नहीं किया। अतः एक कपटपूर्ण असत्य का सहारा लेकर घोषणा की जाती है कि संथारा करवा दिया गया था। यह भी संथारे के सम्बन्ध में अतिरंजित धारणा का दुष्परिणाम है। जैन धर्मानुयायियों को तो इस विषय में विशेष सतर्क रहना चाहिए। हमें सही संथारे का विरोध करने वालों को उत्तर तो देना ही होगा साथ ही अशुद्ध संथारे की परिपाटी को भी नहीं पनपने देना होगा। आइये! इस युग के कुछ महानतम संथारा साधकों को स्मरण करके नमन करें। १. १९४९ में मूनक में श्री बनवारीलाल म० ने १० दिन का संथारा किया। २. १९६१ में सौराष्ट्र के पीज गांव में श्री चतुरलाल जी म० ने ४२ दिन का संथारा किया। ३. १९८६ में राजगृह में तपस्वी मुनि श्री जगजीवनरामजी म० ने ४५ दिन का संथारा किया। ४. १९८७ में सोनीपत में तपस्वी श्री बद्री प्रसाद जी म० ने ७२ दिन का संथारा किया। ५. १९९१ में पीपाड़ में श्री हस्तीमल जी म० ने १० दिन का संथारा किया।
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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