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पवित्र परम्परा संथाराः एक संक्षिप्त चर्चा : 17. भयंकर कष्ट की स्थिति में, दुर्भिक्ष के समय, घोर बुढ़ापा आने पर तथा लाइलाज बिमारी की हालत में साधक को चाहिए कि वह शरीर के प्रति अपना मोहभाव घटा दे तथा संलेखना स्वीकार कर ले। उपर्युक्त सभी स्थितियों में शरीर का अन्त तो होना ही है, अन्य कोई जीने का विकल्प शेष नहीं है, फिर क्यों रोते-बिलखते प्राणों को छोड़े? उस समय तो वह शान्तिपूर्वक देह का स्वयं ही विसर्जन कर दे तो जीवन की पूर्णता ही कहलाएगी नहीं तो मौत को तो आना ही है। वैसे तो इस्लाम और ईसाई मत को छोड़कर सभी धर्मों में या यूं कहें कि सभी भारतीय परम्पराओं में संथारे की व्यवस्था है, पर जैन धर्म में तो इसका दीर्घ एवं प्राचीन इतिहास है। जैन धर्म के प्राचीनतम आगमों में जिन भी साधकों का (साधुओं का या श्रावकों का) जीवन चरित्र उल्लिखित है, सबके सम्बन्ध में यह अवश्य सूचित किया गया है कि उन्होंने कितने दिन का संथारा किया। अत: अन्तकृत्दशांग में ९० महापुरुषों का, अनुत्तरोपपातिक सूत्र में ३३ साधुओं का, ज्ञाताधर्मकथांग, भगवती आदि आगमों में भी शतश: आत्माओं का, उपासकदशांग में १० श्रावकों का, औपपातिक सूत्र में अम्बड़ परिव्राजक और उसके शिष्यों का, निरयावलिका पंचक में राजा चेटक, वरुण (नाग पौत्र) का तथा ज्ञाताधर्मकथा में नन्दन दुर्दुर का जीवन-चरित्र वर्णित है और उन-उन आत्माओं को अंतिम समय में संथारा उदय में आया था, यह भी वर्णित है। अन्यत्र भी आगमकार यह बताना नहीं भूलते हैं कि किन-किन आत्माओं ने कितने-कितने दिन का संथारा किया। स्वयं भगवान् महावीर स्वामी के जीवनकाल में ही उनके माता-पिता ने संथारा ग्रहण किया था। इतिहासकारों ने जैन मान्यता की पुष्टि की है कि प्रथम भारत सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने धर्म गुरु भद्रबाहु स्वामी के सान्निध्य में संलेखना व्रत स्वीकार किया था। आचार्य चाणक्य के सम्बन्ध में भी जैन परम्परा में उल्लेख मिलता है कि उन्होंने अंतिम समय में समाधिमरण अपनाया था। साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त शिलालेखीय प्रमाणों की विशाल संख्या यह सिद्ध करती है कि संलेखना-संथारा बहुत प्राचीन काल से जैन धर्म में किया जाता रहा है। जस्टिस टी. के. टुकोल ने अपनी पुस्तक 'Sallekhana is not Suicide' में ऐसे शताधिक शिलालेखों को उद्धृत किया है। प्राचीन काल से आज तक लाखों करोड़ों बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री विधि-विशेषज्ञ, शासक एवं धर्म पुरुष जिस संथारे को बड़ी पवित्र भावना से देखते आए हैं, उसी संथारे की यदि कुछ छुट भैये पत्रकार आत्महत्या से तुलना करें तो हैरत होती है। क्या इतने मनीषी आत्महत्या को भी नहीं पहचान