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________________ पवित्र परम्परा संथाराः एक संक्षिप्त चर्चा : 15 अर्थात् जब कर्म क्रमश: क्षीण होते जाते हैं और अन्तर में शुद्धि की वृद्धि होती जाती है, तब जीवात्मा मनुष्य शरीर को प्राप्त करती है। यह मनुष्य शरीर दुर्लभ और बहुमूल्य है, यह गंवाने के लिए नहीं है, अपितु बचाने के लिए है। इसी कारण रोगादि की स्थिति में मुनियों के लिए चिकित्सा करवाने की अनुमति है। स्वयं तीर्थंकर महावीर स्वामी ने भी मुनियों की भावना का सम्मान रखने के लिए प्रासक निर्दोष औषधि का सेवन किया था। यह एक नि:संदिग्ध तथ्य है कि जैन धर्म जीवन का समर्थक है: मृत्यु का पुजारी नहीं है। यह ठीक है कि यहाँ सामान्य जीवन की बजाय संयमी जीवन की पूजा की जाती है। कुछ लोगों के मस्तिष्क में यह भ्रान्ति घर कर गई है कि जैन धर्म जीवन रक्षा के प्रति सावधान न होकर मरणोन्मुखता को प्रश्रय देता है। उनकी यह धारणा नितान्त निर्मूल है क्योंकि जैन धर्म तो सदा ही 'जीओ और जीने दो' का नारा देता रहा है। हाँ! यदि कभी देश, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए जीवन आहुति देने का प्रसंग आया है तो इसमें भी जैनों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया है। जैन धर्म की मान्यता रही है कि जीवन को शान से जीओ। संयम, साधना और तपस्या से इसे चमकाओ और जब इससे विदा होने का अवसर आए तब भी हंसते-हंसते इस दुनियाँ से कूच कर जाओ। जीवन के साथ मृत्यु का अविनाभाव सम्बन्ध है। मृत्यु को भी जीवन्त बनाने की कला जैन धर्म में बताई गयी है। जीते-जी मुनि तपस्या का अभ्यास करता रहता है, रात्रि को आहार पानी ग्रहण न करने का उसका आजीवन का नियम होता है। वह यथा शक्ति एक उपवास, दो उपवास; तीन उपवास तथा बढ़ते-बढ़ते छह मास तक के तप का भी अभ्यास कर लेता है। हर तपस्या के बाद पारना करने की अनुमति या इच्छा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन धर्म जीवन की डोर को एक झटके से तोड़ने की इजाजत नहीं देता है। वह तो जीवन को अधिकाधिक लम्बा करने की प्रेरणा देता है। जैन धर्म की यह एक अहम मान्यता है कि किसी भी मनुष्येतर गति में आत्मा पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती। मनुष्य यदि मृत्यु प्राप्त करके नरक, तिर्यञ्च या देवगति में से किसी भी गति या योनि में जाता है तो वह अध्यात्म की दृष्टि से घाटे में जाता है न कि मुनाफे में। अत: मनुष्य शरीर को छोड़ने की कभी भी जल्दी नहीं करनी चाहिए। लेकिन कोई भी साधक इस सच्चाई से भी अपनी आंखें नहीं मूंद सकता कि अन्ततः जीवन का अन्त आएगा ही। इस अंतिम समय को जल्दी तो नहीं बुलाना पर वह आए, इससे पूर्व उसकी तैयारी तो अवश्य कर लेनी चाहिए। ऐसा न हो कि जीवन
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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