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विद्यापीठ के प्रांगण में : 101 धर्म के अभ्यास से सौन्दर्य आता है। तीर्थंकर के ३४ अतिशयों में सुन्दर शरीर प्रथम है। आपने बताया कि जिन मूर्तियां अधिकतर ध्यानस्थ और कायोत्सर्ग मुद्रा में मिलती हैं। उनके चेहरे पर प्रशान्त रस का सद्भाव होता है जिससे देखनेवाला शान्ति का अनुभव करता है। अपने कथन को पुष्ट करने के लिये आपने अनेक साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य दिये।
मंचस्थ प्रो० नलिनी बलबीर एवं अन्य मुख्य अतिथि श्री धनपत राज भंसाली ने अपने उद्बोधन में बताया कि भारतीय संस्कृति चौंसठ कलाओं के माध्यम से दैनिक जीवन में आनन्द की उपासना करती रही है। मानव जीवन में कला का सदैव घनिष्ठतम सम्बन्ध रहा है। सत्यं, शिवं, सन्दरम् की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति ही कला है। सौन्दर्य तो शिल्प का अपना होता ही है, और वह सभी जिन मूर्तियों में है, किन्तु जिन मूर्तियों को देखकर हम जिस शान्ति का अनुभव करते हैं वह अपने आप में अद्वितीय है। उसका कारण है कि हमारे जिन वीतराग, काम, क्रोध आदि कषायों से सर्वथा मुक्त हैं। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रोफेसर मारुति नन्दन तिवारी ने बताया किं २४ जिनों की कल्पना जैन धर्म की धुरी है। जैन कला में २४ तीर्थंकरों एवं उनके यक्ष-यक्षियों का प्रभूत अंकन हुआ है। जिन मूर्तियां को अपने सौन्दर्य के लिये बाह्य अलंकरण की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उनका शरीर कोई सामान्य शरीर नहीं होता। अलंकरण की आवश्यकता तो हम छद्मस्थ जीवों को होती है, जो वीतराग है, आप्तकाम है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे कषायों को जीत लिया है वे आध्यात्मिक शरीर वाले होते हैं। उन्होंने डॉ. बलबीर को उनके सुन्दर व्याख्यान के लिये धन्यवाद दिया। इस अवसर जो विद्वज्जन उपस्थित थे उनमें मुख्य थे- प्रो. कमलेश कुमार जैन, प्रो. सीताराम दुबे, प्रो. अरविन्द राय, डॉ. शान्तिस्वरूप सिन्हा, डॉ. रजनीकान्त त्रिपाठी, डॉ. प्रणति घोषाल, डॉ. मलय झा, डॉ. सुजीत चौबे आदि। इनके अतिरिक्त शोधछात्र तथा छात्रायें अधिक संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन डॉ. श्रीनेत्र पाण्डेय ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. राहुल कुमार सिंह ने किया।