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________________ लीलावाई कहा में अलंकार व्यवस्था : 65 जिस अलङ्कार में उपमेय और उपमान में से कोई एक भी किसी धर्म विशेष के कारण दूसरे से उत्कृष्ट प्रस्तुत किया जाता है उसको व्यतिरेक अलङ्कार कहते हैं। उपमेय को उपमान से बढ़ाकर अथवा उपमान को उपमेय से घटाकर वर्णन करना यथा - जस्स पिय-बंधवेहि व चउवयण-विणग्गएहि वेएहि। एक्क-वयणारिवंद-ट्ठिएहिं बहु-मण्णिओ अप्पा ॥२१॥ अर्थ - जिस भूषणभट्ट के प्रिय बन्धुजन चार मुख वाले बह्मा के मुख से निकले हुए चारों वेदों को अपने एक ही मुखरूपी कमल में स्थित होने से अपने को उत्कृष्ट मानते थे। १७. निदर्शना - उपमेय और उपमान के असम्भव संबन्धों को उपमा बनाना निदर्शना अलङ्कार कहलाता है। यथा - “इय केण णियय-विण्णाय-पयडणुप्पण्ण-हियय-भावेण। अविहाविय-गुण-दोसेण पाइया सप्पिणी छीरं ॥१००॥" अर्थ - हे चित्रलेखे! अपने विशेषज्ञान के प्रदर्शन की हार्दिक इच्छा वाले किसने गुण-दोष का विचार किये बिना सर्पिणी को दूध पिला दिया है। अन्य गाथा - ९६३ १८. विशेषण विपर्यय - भावों में तीव्रता व अर्थ में लाक्षणिकता लाने के लिए विशेषण को व्यक्ति से हटाकर वस्तु या पदार्थ के साथ रख देना। यथा-काल-परिणाम काल-परिणाम-सिढिलस्स सहइ णह-तरु-फलस्स दिणवइणा। अत्थइरि-सिला-वडणुच्छलंत-रस-सच्छहा संझा ॥४४३॥ अर्थ - काल के परिणाम से शिथिल हुए नभरूपी वृक्ष के फलस्वरूप सूर्य के अस्ताचल की शिला पर गिरने से उछले रस की प्रभा के समान संध्या सुशोभित हो रही थी। सपथ -
SR No.525091
Book TitleSramana 2015 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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