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60 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 ५. अनन्वय :
उपमानोपमेयत्वमेकस्यैवत्वनन्वयः। जब उपमेय का उपमान न मिल सकने के कारण उपमेय को ही उपमान बना दिया जाये अर्थात् जहाँ उपमेय की उपमा, उपमेय से ही दी जाये अथवा जहाँ एक ही शब्द उपमेय और उपमान का काम करता है, वहाँ अनन्वय अलङ्कार होता है। यथा - जो सो अविग्गहो वि हु सव्वंगावयव-सुंदरो सुहओ।
दुइंसणो वि लोयाण लोयाणाणंद-संजणणो ॥६५॥ जहाँ के उद्यान अत्यन्त सुखपूर्वक सुरादि पान करके चर्चरी गीत गाते हुए लोगों की मधुर ध्वनि से व्याप्त रहते हैं और जो समस्त सुखों का निधान है, ऐसा (महाराष्ट्र) नामक देश प्रसिद्ध है। ६. सन्देह (संशय):
इदमेतदिदं वेति साम्याबुद्धिर्हि संशयः।
हेतुभिर्निश्चयः सोडपि निश्चयान्तः स्मृतो यथा ॥ जब सादृश्य के कारण एक वस्तु में अनेक वस्तुओं के होने की संभावना दिखाई पड़े और निश्चय न हो तब वहाँ सन्देह अलङ्कार होता है यथा -
णमह सरोस-सुयरिसण-सच्चवियं कररुहावली-जुयलं ।
हिरणक्कस-वियडोरत्थलट्ठिदल-गम्भिणं हरिणो ॥१॥ अर्थ - रोष से युक्त सुदर्शन चक्र के द्वारा देखी गई, हिरण्यकश्यपु दानवेन्द्र के विशाल वक्षस्थल की हड्डी के टुकड़ों से युक्त विष्णु भगवान् के दोनों हाथों की नखपंक्तियों को नमस्कार करो। ७. भ्रांतिमान -
वस्तुन्यन्यत्र कुत्रापि तत्तुल्यस्यान्यवस्तुनः । निश्चयो यत्र जायेत भ्रान्तिमान्स स्मृतो यथा ।।