SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 ३. विभंगदर्शन की तरह मनःपर्यवदर्शन भी अवधिदर्शन है : कुछेक आचार्यों का मानना है कि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के विभंगज्ञान होता है, उसके विभंगदर्शन भी होता है, जिसको अवधि दर्शन कहा जाता है। उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी का मन:पर्यवदर्शन, अवधिदर्शन ही है अर्थात् मनःपर्यवदर्शन का दूसरा नाम अवधिदर्शन है। जैसे चार दर्शनों के अतरिक्त पांचवाँ दर्शन विभंगदर्शन नहीं बता कर उसका समावेश अवधिदर्शन में कर लिया गया है वैसे ही मन:पर्यवदर्शन को भी अवधिदर्शन में समाहित कर लिया गया है और उसी से मन:पर्यवज्ञानी देखता है। लेकिन ऐसा जो कहते हैं उनका कहना भी आगम के विपरीत है। क्योंकि 'भगवतीसूत्र' शतक ८ उद्देशक (आशीविष नामक उद्देशक) में मन:पर्यवज्ञान में दो या तीन दर्शन कहे गये हैं। दो दर्शन हों तो चक्षुअचक्षु तथा तीन दर्शन हों तो चक्षु-अचक्षु और अवधिदर्शन पाये जाते हैं क्योंकि जिसमें मति-श्रुत और मन:पर्यवज्ञान हो, उसके चक्षु-अचक्षु दो दर्शन होते हैं और जिसमें अवधि सहित चार ज्ञान हों, उसके अवधि सहित तीन दर्शन होते हैं। इसलिए मनःपर्यवज्ञान वाले के नियम से अवधिदर्शन होता है, ऐसा कहना आगम विरुद्ध है। यदि मनःपर्यवज्ञान वाले के अवधिदर्शन होता है, तो मति-श्रुत और मन:पर्यवज्ञान इन तीन ज्ञान वालों के भी निश्चय से तीन दर्शन होना चाहिए, न कि दो दर्शन। लेकिन इनमें दो ही दर्शन बताये गये हैं। जबकि विभंगज्ञानी के नियम से तीन दर्शन बताये गये हैं। इसलिए विभंगदर्शन की तरह मन:पर्यवदर्शन का अवधिदर्शन में समावेश हो गया है, ऐसा मानना गलत है।३१ साथ ही आगमों में जहाँ भी विभंगज्ञान के साथ दर्शन का वर्णन है वहाँ उसे अवधिदर्शन बताया गया है, न कि विभंगदर्शन। क्योंकि दर्शन तो सामान्य रूप होता है इसलिए इसमें दृष्टि (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि) का फर्क नहीं पड़ता है। दृष्टि का फर्क ज्ञान में पड़ता है। ४. अवधिसहित मनःपर्यवज्ञान वाला जानता और देखता है, जबकि अवधिरहित मनःपर्यवज्ञान वाला सिर्फ जानता है : कुछेक आचार्यों का मानना है कि जो मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञान सहित चार ज्ञान वाले होते हैं, वे मनःपर्यवज्ञान से जानते हैं और अवधिदर्शन से देखते हैं और जो मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञान रहित तीन ज्ञान वाले
SR No.525091
Book TitleSramana 2015 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy