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________________ 34 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 जिसमें विशिष्ट परिस्फुट रूप देखा जाए। यह लक्षण चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन में ही घटित हो सकता है। वस्तुत: प्राचीन व्याख्याकारों के अनुसार पश्यत्ता और उपयोग के भेदों में अन्तर ही इनकी व्याख्या को ध्वनित कर देते हैं।२१ उपर्युक्त पश्यत्ता के वर्णन में श्रुतज्ञान को पश्यत्ता के रूप में ग्रहण किया गया है। इस अपेक्षा से श्रुतज्ञानी भी जानता और देखता है, वह श्रुतज्ञान के उपयोग से नहीं वरन् श्रुतज्ञान की पश्यत्ता से जानता और देखता है, ऐसा कह सकते हैं।२२ इसलिए यहाँ 'पासई' क्रिया का प्रयोग सही है। 'आवश्यकचूर्णि' में कहा है कि श्रुतज्ञानी अदृष्ट द्वीपसमुद्रों और देवकुरुउत्तकुरु के भवनों की आकृतियों (संस्थानों) का इस रूप में आलेखन करता है कि मानों उन्हें साक्षात् देखा हो। अत: श्रुतज्ञानी जानता है, देखता है- यह आलापक विपरीत नहीं है।२३ आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार पश्यति का अर्थ चक्षु से देखना अथवा साक्षात्कार करना नहीं है। यहाँ पासइ का प्रयोग पश्यत्ता के अर्थ में है। इसका तात्पर्य है, दीर्घकालिक उपयोग। श्रुतज्ञान का सम्बन्ध मन से है। मानसिक ज्ञान दीर्घकालिक अथवा त्रैकालिक होता है, इसलिए यहाँ 'पासइ' का प्रयोग संगत है।२४ मनःपर्यवज्ञान की अपेक्षा 'जाणइ' एवं 'पासइ' मनःपर्यवज्ञान से जानना तो हो जाता है, लेकिन देखने रूप दर्शन नहीं होता है और सूत्रकार ने मन:पर्यवज्ञान के साथ 'जाणइ' और 'पासई' इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग किया है, तो मन:पर्यवज्ञान का दर्शन भी होना चाहिए। अत: यहाँ प्रयुक्त 'पासइ' क्रिया के सम्बन्ध में 'विशेषावश्यकभाष्य' में विभिन्न मतान्तर प्राप्त होते हैं, उन्हीं की यहाँ पर समीक्षा की जा रही है। प्रश्न - जैसे अवधिज्ञानी, अवधिज्ञान से जानते हैं और अवधिदर्शन से देखते हैं? उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी क्या मन:पर्यवज्ञान से जानते हैं और मनःपर्यवदर्शन से देखते हैं?
SR No.525091
Book TitleSramana 2015 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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