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"विशेषावश्यकभाष्य' में ज्ञान के सम्बन्ध में 'जाणइ' एवं 'पासइ' ... : 31 अपेक्षा से देखता है, क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान के बोधक हैं और अवग्रह व ईहा ये दोनों दर्शन के बोधक हैं। अभयदेवसूरि ने यह उल्लेख जिनभद्रगणि का आश्रय लेकर ही किया है१३। अतः ‘पासइ' क्रिया का प्रयोग सही है। लेकिन 'नंदीसत्र' के टीकाकारों के अनुसार 'ण पासई' के प्रयोग का कारण यह है कि यहाँ प्रयुक्त ओदश का अर्थ दो प्रकार का है- सामान्य और विशेष। उनमें द्रव्यजाति अथवा सामान्य प्रकार से धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को मतिज्ञानी जानता है और धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश इसे विशेष रूप से भी जानता है, किन्तु धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को नहीं देखता है, केवल योग्य देश में स्थित शब्द रूप आदि को देखता है,१४ इसलिए दोनों क्रियाओं का प्रयोग सही है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार उक्त समस्या का समन्वय नंदी के व्याख्या ग्रन्थों के आधार पर इस प्रकार किया जा सकता है कि मतिज्ञानी सब द्रव्यों को देखता है। विधेय अपेक्षा यह है कि वह चक्षदर्शन और अचक्षुदर्शन के विषयभूत सब द्रव्यों को देखता है। निषेध की अपेक्षा यह है कि मतिज्ञान धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त द्रव्यों को नहीं देखता इसलिए वह सब द्रव्यों को नहीं देखता है।१५ श्रुतज्ञान की अपेक्षा 'जाणइ' 'पासइ' श्रुतज्ञान के विषय रूप द्रव्य के सम्बन्ध में भी 'जाणइ' और 'पासइ' क्रिया का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। श्रुतज्ञान के विषय में प्रयुक्त 'जाणइ' और 'पासइ' क्रिया का प्रयोग विचारणीय है, क्योंकि आगम-ग्रंथों के ज्ञान को जान सकते हैं, लेकिन देख नहीं सकते हैं।१६ अत: ‘पासइ' क्रिया के सम्बन्ध में यहाँ विरोधाभास उत्पन्न होता है। श्रुतज्ञानी इन्द्रियों के विषय से दूर रहे हुए मेरुपर्वत आदि को श्रतज्ञान के आधार से चित्रित करता है, लेकिन वह अदृष्ट को चित्रित नहीं कर सकता है।१७ श्रुतज्ञान सब द्रव्यों का देखता है, इसको स्पष्ट करते हुए अभयदेव कहते हैं कि जो अभिलाप्य द्रव्य है, उन सब द्रव्यों को जानता है। जानने के दो साधन हैं- श्रुतानुवर्ती मानसज्ञान और अचक्षुदर्शन। सम्पूर्ण दशपूर्व