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28 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 यह है कि इनमें जैनधर्म की मान्यताओं का वर्णन मात्र जैनदर्शन की दृष्टि से न करते हुए अन्य दर्शनों के साथ तुलना, खण्डन और समर्थन आदि करते हुए किया गया है। अत: दार्शनिक दृष्टिकोण से भी यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई सम्पूर्ण जैनागमों का अध्ययन नहीं कर सके तो भी यदि वह 'विशेषावश्यकभाष्य' का स्वाध्याय कर ले तो उसे जैनागमों में वर्णित सभी विषयों का परिज्ञान हो सकता है। 'विशेषावश्यकभाष्य' में अन्य विषयों के साथ ज्ञानवाद का भी विस्तार से वर्णन किया गया है एवं जिनभद्रगणि के बाद वाले सभी आचार्यों ने स्व-स्व ग्रंथों में ज्ञानवाद के वर्णन में और ज्ञानवाद की व्याख्या करने में 'विशेषावश्यकभाष्य' को ही आधार बनाया है। इसमें ज्ञानवाद का प्रतिपादन इतने विस्तृत और विपुल रूप में हुआ है कि इसे पढ़कर ज्ञानवाद के सम्बन्ध में अन्य किसी ग्रन्थ को पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहती है। अत: आचार्य जिनभद्र ने 'विशेषावश्यकभाष्य' लिखकर जैनागमों के मंतव्यों को तर्क की कसौटी पर कसा है और इस काल के तार्किकों की जिज्ञासा को शांत किया है। उनकी युक्तियाँ और तर्क शैली इतनी अधिक व्यवस्थित है कि आठवीं शताब्दी में होने वाले महान् दार्शनिक हरिभद्र तथा बारहवीं शताब्दी में होने वाले आगमों के समर्थ टीकाकार मलयगिरि भी ज्ञान-चर्चा में आचार्य जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण की ही यक्तियों का आश्रय लेते हैं। इतना ही नहीं, अपितु अठारहवीं शताब्दी में होने वाले नव्यन्याय के असाधारण विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी भी अपने जैनतर्कभाषा, अनेकान्तव्यवस्था, ज्ञानबिन्दु आदि ग्रन्थों में उनकी दलीलों को केवल नवीन भाषा में उपस्थित कर सन्तोष मानते हैं, उन ग्रन्थों में अपनी ओर से नवीन वृद्धि शायद ही की गई है। अत: हम कह सकते हैं कि पंचज्ञान के सम्बन्ध में 'विशेषावश्यकभाष्य' में जो कुछ कहा गया है, वही अन्यत्र उपलब्ध होता है और जो कुछ नहीं कहा गया, वह अन्यत्र भी प्राप्त नहीं होता है। जैनदर्शन में पांच ज्ञान स्वीकार किये गये हैं, यथा आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञाना२ इन पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद में विभक्त किया गया है। प्रत्यक्ष