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110 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 अन्त तक श्वेताम्बर परमपरा के विकास को दर्शाया गया है। यह अध्याय भी दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में पूर्व एवं पूर्वोत्तर भारत में तथा द्वितीय भाग में पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर भारत में श्वेताम्बर परम्परा के क्रमशः विस्तार को बताया गया है। चतुर्थ अध्याय श्वेताम्बर परम्परा के पवित्र तीर्थस्थलों से सम्बन्धित है। लेखक ने तीर्थों की जैन अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए सभी महत्त्वपूर्ण तीर्थों का परिचय दिया है। इस सन्दर्भ में लेखक ने अभिलेखों का भी सहारा लिया है जो उसकी प्रामाणिकता को और पुष्ट करता है। पञ्चम् अध्याय में श्वेताम्बर परम्परा के महान आचार्यों द्वारा शिक्षा में उनके योगदान को दर्शाया गया है। शिक्षा ही मनुष्य को इस योग्य बनाती है कि वह मोक्षरूपी अमृत का पान कर सके। इसी अध्याय में शिक्षक-शिक्षार्थी के पारस्परिक सम्बन्धों, शिक्षण-विधि एवं कुछ प्रसिद्ध आचार्यों के जीवन-वृत्त एवं उनके कृतित्व का विवरण भी है। षष्ठ अध्याय कला एवं स्थापत्य कला से सम्बन्धित है। इस अध्याय में जैन कला की विशेषताओं को प्रदर्शित करते हुए उनके प्रसिद्ध मन्दिरों का विवरण दिया गया है। सप्तम् अध्याय श्वेताम्बर परम्परा के उन शाश्वत मूल्यों से सम्बन्धित है जिनके लिए वह प्रख्यात रहा है। यहाँ धर्म की भारतीय व्याख्या प्रस्तुत की गयी है तथा इसी प्रसंग में धार्मिक साहिष्णुता पर प्रकाश डाला गया है। अष्टम् अध्याय उपसंहार है जिसमें पुस्तक के सार को प्रस्तुत किया गया है। अन्त में बहुउपयोगी सन्दर्भ सूची एवं शब्दानुक्रमणिका भी दी गयी है। इसप्रकार श्वेताम्बर जैन संप्रदाय के विकास की ऐतिहासिक महत्ता को ध्यानगत रखते हुए इस पर ग्रन्थ प्रणयन के लिए डॉ० गुप्ता साधुवाद के पात्र हैं। यह आशा की जाती है कि उनका यह प्रयास अनेक विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों को मार्गदर्शन प्रदान करेगा।
डॉ० राहुल कुमार सिंह रिसर्च-एसोसिएट, पार्श्वनाथ विद्यापीठ,
वाराणसी
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