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सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव आचार्य समन्तभद्र एवं महात्मा गाँधी : एक तुलनात्मक दृष्टि
प्रो0 रामजी सिंह 'सर्वोदय' शब्द भले ही संस्कृत साहित्य एवं इसके प्रामाणिक शब्दकोशों में नहीं है लेकिन सर्वोदय की भावना प्राचीन वैदिक आर्य एवं नीति ग्रंथों में पर्याप्त रूप से व्याप्त है। ऐसा क्यों हुआ, यहाँ मैं एक उत्तर तो यही दे सकता हूँ कि सर्वोदय एक सामासिक शब्द है जो सर्व-उदय, इन दो शब्दों के योग से बना है। अतः अलग से इनको संयुक्त कर स्वतंत्र रूप से शब्दकोश में देने की आवश्यकता नहीं थी। इस शब्द की भावना सुरम्य और प्रखर होते हुए भी यह "वाचस्पत्यम्" और "शब्दकल्पद्रुम” आदि वृहद् संस्कृत शब्दकोशों में प्राप्त नहीं है। फिर सम्पूर्ण वेद, उपनिषद, गीता और वाल्मीकीय रामायण में भी इसका प्रयोग नहीं मिलना एक संयोग या कुसंयोग हो सकता है। जबकि वैदिक संस्कृति में सर्वोदय की भावना प्रभूत रूप से विद्यमान है। आश्चर्य तब होता है जब जैन आचार्य समन्तभद्र की पुस्तक "युक्त्यानुशासन" में "सर्वोदय" शब्द को सर्वोदय तीर्थ के रूप में प्रयुक्त किया गया है। "सर्वोदय" में "सर्व" शब्द बहुवचन में "सब" का बोधक है। 'सब' का दूसरा अर्थ "सब प्रकार से या सर्वप्रकारेण माना जायेगा। सब प्रकार का अर्थ भौतिक-आध्यात्मिक, अभ्युदय-निः श्रेयस, प्रेय-श्रेय के अलावा आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि सबों को भी समाहित करता है। महात्मा गाँधी ने सर्वोदय का उपरोक्त अर्थ मानते हुए एक नया अर्थ भी प्रदान करने का प्रयास किया है, जिसकी प्रेरणा संभवतः उन्हें बाइबिल एवं जान रस्किन की पुस्तक “Unto this Last" से मिली है। यही कारण है कि इस पुस्तक का जब गुजराती भाषा में गाँधीजी ने छायानुवाद किया तो उसका नाम गुजराती में 'अन्त्योदय' हुआ, भले ही हिन्दी में "सर्वोदय" रखा गया। बाईबिल में एक अत्यन्त मनोरम एवं हृदयस्पर्शी आख्यान है कि सर्वोदय की भावना अंतिम व्यक्ति के