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'श्रमण परम्परा, अहिंसा एवं शान्ति' : 69 सम्यक् समाधि का सविस्तार उल्लेख कर इसकी चार अवस्थाओं का भी विशद विवेचन किया। प्रो० प्रसाद ने बताया कि समाधि की प्रथम अवस्था में साधक बुद्ध के चार आर्य सत्यों का मनन एवं चिन्तन करता है और इससे उत्पन्न संशयों का स्वयं निराकरण भी करता है। दूसरी अवस्था में आनन्द एवं शांति का अनुभव करता है। तीसरी अवस्था में इनके प्रति उदासीन हो जाता है जबकि अन्तिम एवं चौथी अवस्था में सभी भाव नष्ट हो जाते हैं। यही निर्वाण की अवस्था है। प्रो0 प्रसाद ने बताया कि अष्टांगिक मार्ग में प्रथम दो सम्यक् दृष्टि और सम्यक संकल्प प्रज्ञा के अन्तर्गत आते हैं। सम्यक वाक, सम्यक कर्मान्त, सम्यक् आजीविका एवं सम्यक व्यायाम शील के अन्तर्गत आते हैं और शेष दो सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि-समाधि के अन्तर्गत रखे जाते हैं। 25. जैन कला एवं प्रतिमा विज्ञान : यह व्याख्यान प्रो0 मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, पूर्व विभागाध्यक्ष, इतिहास-कला विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। कला को परिभाषित करते हुए प्रो० तिवारी ने कहा कि कला साहित्य की वैयक्तिक रचना है। किसी भी काल की कला वर्तमान में भी अपरिवर्तित रूप में ही प्राप्त होती है। कला पूरी संस्कृति की विस्तृत मौन अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से जैन कला के आधार पर पूरी जैन संस्कृति, दर्शन एवं धर्म को समझा जा सकता है। प्रो० तिवारी ने बताया कि जैन तीर्थकर ध्यानमुद्रा एवं कायोत्सर्ग मुद्रा में ही पाये जाते हैं। ध्यानमुद्रा चिन्तन के शीर्ष बिन्दु को व्यक्त करती है और कायोत्सर्ग मुद्रा जैन कला का विलक्षण वैशिष्ट्य है। उपसर्ग में भी जैन तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा का परित्याग नहीं करते। उन्होंने बताया कि जैन तीर्थंकरों के साथ वृक्षों का उल्लेख उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम का द्योतक है। इस क्रम में उन्होंने खजुराहो मन्दिर, दिलवाड़ा का मन्दिर, चन्द्रप्रभ की कुषाणकालीन मूर्ति, देवगढ़ के ऋषभनाथ इत्यादि मूर्तियों के काल, स्थान एवं उनकी विशेषताओं के संदर्भ में