________________
68 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई - दिसम्बर 2014
परिभाषित करने के क्रम में उन्होंने बताया कि बाह्य व्यापार की दृष्टि से किसी भी छोटे या बड़े जीव को अपने मन, वचन या काय से किसी भी प्रकार की न्यूनाधिक पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। जबकि आन्तरिक व्यापार की दृष्टि से राग-द्वेष परिणामों से निवृत्त होकर साम्य भाव में स्थित होना अहिंसा है। डॉ० पाण्डेय ने आचारांग का उद्धरण देते हुए कहा कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, सभी को सुख अनुकूल एवं दुःख प्रतिकूल है । अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है ।
व्याख्यान के क्रम में 10 प्रकार के प्राणों का विवचेन करते हु किसी भी प्राण का घात करना हिंसा कहा गया। 108 प्रकार की हिंसा का विवचेन करते हुए पुरुषार्थ सिद्धयुपाय के आधार पर यह भी बताने का प्रयास किया कि हिंसा की प्रक्रिया में हिंस्य की हिंसा तो होती ही है सर्वप्रथम हिंसक की आध्यात्मिक हिंसा होती है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में वर्णित अहिंसा के 60 नामों के आधार पर यह भी बताने का प्रयास किया कि अहिंसा केवल निषेधात्मक प्रत्यय ही नहीं है, अपितु विध्यात्मक भी है।
डॉ0 पाण्डेय ने अपने व्याख्यान में अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष के रूप में दया और दान को परिभाषित करते हुए क्षमा के चार प्रकारों द्रव्यदया, भावदया, स्वदया एवं परदया का विशद् विवचेन कर दस प्रकार के दान - अनुकम्पा दान, संग्रह दान, भय दान, करुणा दान, लज्जा दान, गौरव दान, अधर्म दान, धर्म दान, करिष्यति दान तथा कृत दान को भी सोदाहरण विवेचित करने का प्रयास किया।
24. शील, समाधि एवं प्रज्ञा :
यह व्याख्यान प्रो० रमेश प्रसाद, पालि एवं थेरवाद विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी का था । प्रो० प्रसाद ने विषय भोग को दुःख का कारण बताते हुए चार आर्य सत्यों का सविस्तार विवचेन किया। इसके उपरान्त आर्य अष्टांगिक मार्ग के विवेचन में अन्तिम