________________
जैन श्रमणी-संघ और नारी उत्थान : 51 में मानी जाती रही संत्रास, पीड़ा कुण्ठा को स्वतंत्र एवं बहुमुखी प्रतिभायुक्त व्यक्तित्व में बदल दिया है। यही नहीं, जैनधर्म ने तो नैतिक मर्यादाओं का पालन करने वाली अनेक वैश्याओं और गणिकाओं, जिनका स्थूलभद्र इत्यादि के संदर्भ में उल्लेख है, को स्वीकारा। उन्हें संघ में प्रवेश देकर श्राविका बनाया। 'कोशा' नामक एक वेश्या का उल्लेख मिलता है, जिसकी शाला में जैनमुनि, आचार्य से अनुमति लेकर चातुर्मास व्यतीत करते थे। गणिकाओं द्वारा जिन-मंदिर और आयाभट्ट (पूजाभट्ट) बनाने में सहयोग करने का उल्लेख मथुरा के अभिलेखों में प्राप्त होता है।2। यहाँ एक और बात का उल्लेख करना आवश्यक लगता है, जिसकी आज के समय में बहुत प्रासंगिकता है, वह है- दुर्व्यसनों से युवा पीढ़ी को दूर रखने में श्रमणी-संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका! जैन समाज निश्चित रूप से बधाई का पात्र है कि यहाँ नशाखोरी जैसी समस्या नहीं है और यदि कहीं है भी तो अत्यल्प। श्रमण-श्रमणियों के प्रति श्रद्धाभाव तथा उनके उपदेशों को अपनाने के कारण ही समाज की तमाम बुराइयों से यह अभी बचा हुआ है। इस प्रकार जैन श्रमणी-संघ द्वारा समाज की महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किये जा रहे हैं। दहेज, सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का अन्त हो चुका है तथा नारी-शिक्षा के माध्यम से उनको जागरूक एवं सशक्त बनाने का प्रयास किया जा रहा है। बालक-बालिका का भेद समाप्तप्राय है। महिलाओं में अनेक कारणों से उत्पन्न होने वाले तनाव, तत्पश्चात् आत्महत्या जैसे कृत्यों को आध्यात्मिक उपदेशों द्वारा रोकने में जैन श्रमणी-संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 21वीं शती में भी विधवा, परित्यक्ता, बलात्कार की शिकार एवं अन्य तरह से उत्पीड़ित महिला को घृणित दृष्टि से देखने तथा तिरस्कृत करने वाले समाज के लिए जैन–श्रमणी संघ एक आदर्श उपस्थित करता है तथा अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता है। वास्तव में उत्थान के पर्याय पुनः श्रमणी संघ का भारतीय नारी समाज सदा ऋणी होगा।