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________________ 50 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गयी थीं, यद्यपि जैनाचार्यों द्वारा इसका समर्थन नहीं किया जाता है। आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख हैं, जिनमें ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए देह-त्याग किया गया। श्रमणी-संघ ने इस कुप्रथा को रोकने में काफी अहम भूमिका निभाई। आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में अनेक ऐसे उल्लेख हुए हैं, जिनमें पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर नारियों ने श्रमणी बनने का निर्णय लिया। निश्चित रूप से एक बड़ी कुप्रथा, जिसमें कभी धर्म के नाम पर स्त्रियों को जीवित रूप में ही जलने पर विवश किया जाता था; जिस अमानवीय कृत्य को रोकने हेतु तमाम सामाजिक संस्थाओं, समाज सुधारकों ने न जाने कितने प्रयास किये, उनको रोकने में श्रमणी-संघ पूर्णतः सफल सिद्ध हुआ है। विधवा, परित्यक्ता अथवा आश्रयहीन नारियों के लिए शरणदाता बने इस संघ के कारण ही जैनधर्म में सतीप्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला। दहेज जैसी कुप्रथा, जिसमें आज भारतीय समाज झुलस रहा है; जैनधर्म में फल-फूल नहीं पाई तो उसका कारण यह श्रमणी-संघ ही है। पिता के पास दहेज देने का सामर्थ्य न होने पर नारियों ने अविवाहित रहने को श्रेयस्कर समझा। जैन श्रमणी-संघ ने न केवल उन्हें समाज के तानों से बचाया है, बल्कि उनको आश्रय देकर उनके आत्म-सम्मान और सतीत्व की रक्षा की है। किसी प्रकार की प्रताड़ना, अपमान और यातना को सहन करने की बजाय नारी ने अपने दुःखों का निदान संघ में खोजा। इस कारण तनाव और कुंठा की जो स्थिति की वर्तमान परिणति आज आत्महत्या के रूप में प्रतिदिन समाचारों में देखने सुनने को मिल रही है; इसका जैनधर्म में पूरी तरह अभाव है। श्रमणी-संघ ने नारी के पर्याय के रूप
SR No.525089
Book TitleSramana 2014 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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