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________________ 46 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई-दिसम्बर 2014 परम्परा के भिक्षु एवं भिक्षुणियों को विधिवत रूप से पंचमहाव्रत ग्रहण करवाकर महावीर द्वारा संघ में सम्मिलित करने का उल्लेख है । अतः महावीर स्वामी के पूर्व ही श्रमणी - संघ की स्थापना सिद्ध होती है । जैन - संघ में श्रमणियों को बहुत महत्त्व दिया गया है । अंग साहित्य में भिक्खु वा - भिक्खुणी वा' तथा 'निग्गन्थ वा निग्गन्थी वा का उद्घोष नारी की महत्ता को सिद्ध करता है। यही कारण रहा है कि आरम्भ से ही श्रमणियों और श्राविकाओं की संख्या क्रमशः श्रमणों और श्रावकों से अधिक रही है। महावीर स्वामी के समय श्रावकों की संख्या 1,59,000 तथा श्राविकाओं की 3,18,000 थी । केवल जैनधर्म ही ऐसा रहा, जहाँ न केवल नारी - मुक्ति और नारी - दीक्षा को स्वीकार किया गया, अपितु 'मल्लि' को स्त्री - तीर्थंकर जैसे सर्वोच्च पद से विभूषित किया गया। यह जैनधर्म की नारी के प्रति सम्मान एवं आदर - भावना को सूचित करता है। स्थानांगर तथा उसकी टीका में ऐसे दस सामान्य कारणों का उल्लेख है, जिनसे लोग दीक्षा ग्रहण करते थे 1. छन्दा ( स्वेच्छा से) 2. रोसा ( आवेश से) 3. परिजुण्णा ( दरिद्रता से ) 4. सुविणा ( स्वप्न से ) 5. पडिस्सुया (प्रतिज्ञा लेने से ) 6. सारणिया (स्मरण से ) 7. रोगिणिया (रोग होने से ) 8. अणाढिया (अनादर से) 9. देवसण्णत्ती (देवता के उपदेश से ) 10. वोच्छाणुबंधिया (पुत्र - स्नेह से ) इसके अतिरिक्त प्रव्रज्या - ग्रहण करने के अन्य कारण भी थे, जैसेबिना मेहनत किये उत्तम भोजनादि की प्राप्ति ( इहलोगपरिबद्धा),
SR No.525089
Book TitleSramana 2014 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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