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कालिदास के रूपकों में प्रयुक्त प्राकृत का वैशिष्ट्य
डॉ० एजनीश शुक्ल
मानव में अनुकरण की प्रवृत्ति स्वभावत: पायी जाती है। अनुकरण की प्रवृत्ति का उद्देश्य आनन्द प्राप्त करना है। काव्य या कला में भी अनुकरण वृत्ति पायी जाती है। अतएव काव्य या कला आनन्द प्राप्ति का साधन है। भारतीय भाषा परिवार में वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत तथा प्राकृत परस्पर संश्लिष्ट तथा घनिष्ठ रूप से संबद्ध रही हैं। संस्कृत और प्राकृत दोनों ही मूलत: जनसमाज में प्रचलित रही हैं। इन दोनों में संवाद की एक सतत और सुदीर्घ प्रक्रिया ने शास्त्रीय विमर्श और साहित्यिक परंपराओं को संपन्न बनाया है। संस्कृत की चिंतन परंपराओं के साथ संवाद के कारण प्राकृत भाषा में दार्शनिक विमर्श पुष्ट हुआ तो प्राकृत साहित्य के साथ संवाद के तारतम्य में संस्कृत में लोक जीवन के काव्य और उसके आदर्श की प्रक्रिया उपक्रांत हुई। इसी तरह चरितलेखन, इतिहास रचना, छन्दःशास्त्र, कविसमय, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, काव्यविधाएं, कथानक रूढ़ियाँ, आख्यान, उपाख्यान, इन सबके पारस्परिक आदानप्रदान के द्वारा संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का साहित्य संपन्न बना। संस्कृत और प्राकृत भाषा के बीच भावात्मक अन्तर नहीं है। दोनों के विकास का स्रोत एक ही है और वह है छान्दस । डॉ० अल्सडोर्फ, डॉ० पिशेल, डॉ० पी० डी० गुणे आदि विद्वान् भी प्राकृत भाषा के स्रोत के रूप में एक प्राचीन लोकभाषा को स्वीकार करते हैं, जिससे छान्दस भाषा संस्कृत का भी विकास हुआ है। किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं - कथ्य और साहित्यनिबद्ध। कथ्य भाषा सर्वदा परिवर्तनशील होती है। कोई भी भाषा जब साहित्य और व्याकरण के नियमों से बंध जाती है तो उसका विकास रुक जाता है। पुन: जनभाषा से एक नयी भाषा उभर कर आती है जो आगे साहित्य और जनमानस में सम्प्रेषण का माध्यम बनती है। प्राकृत ने संस्कृत के अनेक शब्दों, ध्वनि रूपों एवं काव्य रूपों को ग्रहण कर अपना साहित्य विकसित किया है, उसी प्रकार संस्कृत भाषा भी समय-समय पर प्राकृत से प्रभावित होती रही है। बोलचाल की भाषा अथवा कथ्य भाषा प्राकृत का