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________________ भक्ति रत्नावली : एक अनुशीलन अर्चना शर्मा जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि सात सौ अठारह भाषाओं में परिणत हुई मानी गई है, इनमें से अठारह महाभाषाएँ मानी गई हैं और सात सौ लघु भाषाएँ हैं। इन महाभाषाओं के अन्तर्गत ही संस्कृत और प्राकृत को सर्व प्राचीन एवं प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकृत किया गया है। लोकपरक सुधारवादी रचनाओं का प्रणयन जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में ही प्रारम्भ किया। भारतीय वाङ्मय के विकास में जैनाचार्यों के द्वारा विहित योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा डॉ० विण्टरनित्स् ने की है।२ । प्रसिद्ध जैन आगम ग्रन्थ अनुयोगद्वारसूत्र में प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं को ऋषिभाषित कहकर समान रूप से सम्मान प्रदर्शित किया गया है। संस्कृत में जैन साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है, जो विविध धाराओं में संप्रवाहित है। परमपूज्य आचार्य श्री आदिसागरजी महा. (अंकलीकर) के द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी महा. के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महा. के चतुर्थ पट्टाधीश परमपूज्य आचार्य योगीन्द्रसागरजी महाराज ने श्रमण संस्कृति के प्रचार-प्रसार में बोधगम्य, सरल भाषा में शताधिक रचनाओं के माध्यम से महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। योगीन्द्रसागर जी ने संस्कृत में उच्चकोटि के साहित्य की रचना कर २१वीं शती में संस्कृत मनीषियों के मध्य स्वयं को स्थापित किया है। भक्तिरत्नावली' उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है। वे गत दो दशकों से 'संस्कृत एवं हिन्दी में अनेक पूजाभक्ति एवं नीति साहित्य-सजृन से भारतीय वाङ्मय की श्रीवृद्धि में अनुपम योगदान कर
SR No.525088
Book TitleSramana 2014 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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