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जैन साधना में श्रावक धर्म 23 धनधान्यपरिमाणातिक्रम गाय, बैल, भैंस, घोड़ा आदि को धन कहा जाता है। गेहूँ, ज्वार, मूँग, जौ आदि को धान्य कहा जाता है इनका परिमाण करके अतिक्रमण करना ही धनधान्य परिमाणातिक्रम अतिचार है।
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दासीदास परिमाणातिक्रम अपनी सेवा के लिए रखे गये सेवक आदि के परिमाण का अतिक्रमण करना ही दासीदास - परिमाणातिक्रम नामक परिग्रहपरिमाण अणुव्रत का चौथा अतिचार है।
कुप्यपरिमाणातिक्रम स्वर्ण तथा चाँदी को छोड़कर शेष सभी वस्तुएं कुप्य शब्द के अन्तर्गत आ जाती हैं। इन सभी वस्तुओं का परिमाण करके अतिक्रमण करना कुप्यपरिमाणातिक्रम अतिचार है।
उपर्युक्त समस्त अतिचार परिग्रह परिमाण अणुव्रत में दोष उत्पन्न करते हैं। श्रावक का यह कर्त्तव्य है कि वह इनका त्याग करके इस व्रत की रक्षा करें।
परिग्रहपरिमाण अणुव्रत की पाँच भावनायें
"मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय विषयरागद्वेष वर्जनानि पंच २०
मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ पाँचों इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष का परित्याग ही परिग्रहपरिमाण अणुव्रत की पाँच भावनायें हैं। कर्मयोग से मिले हुए मनोज्ञ विषयों के प्रति अतिराग व आसक्ति नहीं करनी चाहिए तथा अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष व घृणा नहीं करनी चाहिए।
इन भावनाओं को सदा स्मरण रखने से परिग्रह - परिमाण अणुव्रत में दोष नहीं लगने पाता है तथा व्रत में दृढ़ता रहती है।
पञ्चाणुव्रत धारण करने से लाभ - पाँच अणुव्रत श्रावक के प्रमुख गुण हैं, जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाँच महाव्रत प्राणभूत हैं, उसी प्रकार श्रावक के लिए पाँच अणुव्रत जीवनरूप हैं। जैसे पाँच महाव्रतों के अभाव में श्रामण्य निर्जीव होता है वैसे ही पाँच अणुव्रतों के अभाव में श्रावक धर्म निष्प्राण होता है । २१