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________________ जैन साधना में श्रावकधर्म डॉ. संगीता मिश्रा जैन परम्परा में श्रावक शब्द का प्राकृत रूप 'सावय' है। जिसका का अर्थ बालक या शिशु है। जो अपनी साधना के क्षेत्र में प्रारम्भिक अवस्था में है, वह श्रावक है। श्रावक धर्म पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों के भेद से बारह प्रकार का बताया गया है पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं च हुंति तिन्नैव । सिक्खावयाइं चउरो सावगधम्मो दुवालसहा । ' जो उदासीन गृहस्थ व्रत धारण करते है, उसे श्रावक के अतिरिक्त अणुव्रती, उपासक, देशविरत, सागार आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है। श्रावक धर्म के प्रतिपालन हेतु सामान्य रूप से अहिंसादि बारह व्रत एवं सल्लेखना की अपरिहार्यता स्वीकार की गई है। बारह व्रतों को धारण करने वाला श्रावक समय-समय पर आत्म-साधना के निमित्त ग्यारह प्रतिमाओं को क्रमशः हृदयंगम करते हैं। प्रकारान्तर से पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा तथा साधन - ये तीन भेद द्वादशव्रतधारी श्रावक की आचार मर्यादा के कहे जा सकते हैं। पञ्चाणुव्रत सर्वविरत श्रमण साधक के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत कहे जाते हैं। श्रमण साधक का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह पूर्ण रूप से कठोरता के साथ इनका पालन करें। गृहस्थ साधक के ये व्रत अणुव्रत कहे जाते है। व्यावहारिक जीवन में श्रमणों के सदृश कठोरता के साथ इनका परिपालन गृहस्थों के लिए असम्भव है। इसलिए गृहस्थों के द्वारा इनका पालन आंशिक रूप से किया जाता है। इस प्रकार श्रावक के प्रथम पाँच व्रत महाव्रतों की अपेक्षा लघु होने के कारण 'अणुव्रत कहे जाते हैं। वाचक उमास्वाति ने समस्त पापों के निवारणार्थ
SR No.525088
Book TitleSramana 2014 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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