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30 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ साथ रूप-रसादि की तरह विद्यमान हैं। अत: समस्त साध्यों का साधक अनेकान्त सिद्धान्त ही है। सन्दर्भ सूची: १. ऋग्वेद १.१६४.४६ २. उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः।। सिद्धसेन/द्वात्रिंषिका, ४/१५। ३. सन्मतितर्क प्रस्तावना, पृ० ८४ ४. गोम्मटसार, ८७६ ५. भगवतीशतक १६, उद्देशक ६ ६. संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा। ___ भासादुगं धम्मसमुट्ठितेहिं, बियागरेज्जा समयाऽऽसमुपण्णे।। सूत्रकृतांग १/१४-२२ ७. मज्झिमनिकाय, सुत्त ९९ ८. आगम युग का जैनदर्शन, डॉ० दलसुख मालवणिया, पृ० ५४-५५ ९. सोया मन जाग जाये, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ० १५५ १०. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्, तत्त्वार्थसूत्र, ५/३० ११. तीर्थंकर वर्द्धमान, आचार्य विद्यानन्द, पृ० ७०-७१ १२. न्यायावतार, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, कारिका, २९ १३. आप्तमीमांसा, तत्त्वदीपिका की प्रस्तावना, प्रो० उदयचन्द जैन, पृ० ८९ १४. राजवार्तिक, अकलंक, २.२२ १५. आचार्यसिद्धसेन, ३/२७ १६. समयसार (आत्मख्याति टीका आचार्य अमृतचन्द्र), १०/२४७ १७. अष्टशति/ अष्टाहस्त्री, पृ० २८६ १८. धवला, १५/२५ १९. परीक्षामुख सूत्र, ८५ २०. न्यायदीपिका, पृ० २२० २१. अनेकान्त व्यवस्था प्रकरणम्, उपाध्याय यशोविजय २२. भिक्षुन्यायकर्णिका, ४/७ २३. जैनदर्शन और अनेकान्त प्रस्तुति, पृ० १ २४. स्वयंभूस्तोत्र, १०१ २५. वही, १०३
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