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अनेकान्तवाद : उद्भव और विकास : 27 भयणा वि हु भइयव्वा जह भयणा भयइ सव्वदवाई।
एवं भयणा णिययो वि होइ समयाविरोहेण।।१५ इस गाथा में अनेकान्त के लिए मूलत: 'भजनवाद' पद प्रयुक्त हैं। ‘णमोअणेगंतवायस्स' के रूप में अनेकान्त शब्द का प्रयोग मिलता है। अनेकान्त की कतिपय प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैंआचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में लिखा है"यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम् इत्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादक- परस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः"१६ अर्थात् वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है। इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त है। आचार्य अकलंकदेव के अनुसार, "सदसन्नित्यानित्यादि सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः" १७ अर्थात् वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है। नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने का नाम अनेकान्त है। वीरसेनाचार्य के अनुसार, "को अणेयंतो णामजच्चंतरत्तं। १८ जात्यन्तर भाव को अनेकान्त कहते हैं। अर्थात् अनेक धमों (स्वभावों) के एकरसात्मक मिश्रण से जो स्वाद (जात्यन्तर भाव) प्रकट होता है, उसे अनेकान्त कहते हैं। परीक्षामुख में आचार्य माणिक्यनन्दी लिखते हैं- "अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः"१९ अर्थात् वस्तु अनेकान्तात्मक है अर्थात् अनेक धर्म वाली है क्योंकि वस्तु का एकान्त स्वरूप पाया नहीं जाता। आचार्य अभिनवधर्मभूषण यति ने लिखा है- 'अनेके अन्ताधर्माः सामान्य विशेष-पर्यायगुणा यस्येतिसिद्धोऽनेकान्तः"२० अर्थात् जिसके अथवा जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म सामान्य, विशेष, पर्याय और गुण पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं।