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________________ 26 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थों नयस्य विषयो मतः।१२ सब ज्ञानों का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु है और नय का विषय एकदेश (धर्म) से विशिष्ट वस्तु है। अनेकान्त का अर्थ है- परस्पर विरोधी दो तत्त्वों का एकत्र समन्वय। तात्पर्य यह है कि जहाँ दूसरे दर्शनों में वस्तु को सिर्फ सत् या असत्, सामान्य या विशेष, नित्य या अनित्य, एक या अनेक और भिन्न या अभिन्न माना है वहाँ जैनदर्शन में वस्तु को सत् और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य और अनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्वीकार किया गया है और जैनदर्शन की यह सत्-असत्, सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, एक-अनेक और भिन्न-अभिन्न रूप वस्तु विषयक मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्त्वों के एकत्र समन्वय को सूचित करती है। ‘अनेकान्त' यह शब्द 'अनेक' और 'अन्त' इन दो पदों के मेल से बना है। अनेक का अर्थ है- एक से भिन्न और अन्त का अर्थ है- धर्म। प्राय: सभी दर्शन वस्तु को अनेकान्तस्वरूप स्वीकार करते ही हैं। ऐसा कोई दर्शन नहीं है, जो घटादि अर्थों को रूप, रसादि गुण विशिष्ट न मानता हो। जैनदर्शन की दृष्टि से भी प्रत्येक वस्तु में विभिन्न अपेक्षाओं से अनन्त धर्म रहते हैं। अतः एक वस्तु में अनेक धर्मों के रहने का नाम अनेकान्त नहीं है, किन्तु प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्त में रहता है, ऐसा प्रतिदिन करना ही अनेकान्त का प्रयोजन है।१३ ।। जैन दर्शन में वस्तु को अनेकान्तात्मक माना गया है। आचार्य अकलंक ने अन्त को अवयव, सामीप्य, समाप्ति, धर्म अथवा अंश का सूचक बताया है। वसनान्त, उदकान्त, संसारान्त- ये क्रमश: अवयव, सामीप्य और समाप्ति के वाचक उदाहरण हैं।१४ आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्कप्रकरण में लिखते हैं -
SR No.525086
Book TitleSramana 2013 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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