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________________ मन:पर्ययज्ञान: विशेषावश्यकभाष्य के.... : 41 है। मन पौद्गलिक है और मनःपर्ययज्ञानी मनोवर्गणा के पर्यायों को जानता है। लेकिन जिस वस्तु का मन में चिन्तन किया गया है। वह चिंतनीय वस्तु मन:पर्यय ज्ञान का विषय नहीं है। उस चिन्तन की गई वस्तु को मन के पौद्गलिक स्कंधों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है।२६ योगसूत्र और मज्झिमनिकाय में भी दूसरे के चित्त को ही मनोज्ञान का विषय माना है।२७ जिनदासगणि२८, हरिभद्र२९, मलयगिरि३०,उपाध्याय यशोविजय१ आदि आचार्यों ने जिनभद्र का ही समर्थन किया है। सिद्धसेनगणि के अनुसार चिंतन की जाने वाली अमूर्त वस्तु को ही नहीं बल्कि स्तंभ, कुंभ आदि मूर्त वस्तु को भी अनुमान से ही जाना जाता है।३१ सिद्धसेनगणि ने मन:पर्यय का अर्थ भाव मन किया है। द्रव्य मन कार्य चिन्तन नहीं करता। चिंतन के समय में जो मनोवर्गणा की पुद्गल-स्कंधादि आकृतियाँ बनती हैं, वे सब पुद्गल रूप होती हैं, जबकि भाव मन ज्ञान रूप होने से अमूर्त होता है। छद्मस्थ अमूर्त को नहीं जान सकता है। चिन्तन के समय मन:पर्ययज्ञानी विभिन्न पौद्गलिक स्कंध की भिन्न-भिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन की पर्याय को जानना अर्थात् भाव मन को जानता है ऐसा नहीं मानना, बल्कि भाव मन के कार्य में निमित्त बने मनोवर्गणा के पुद्गल- स्कंधों को जानता है।३३ . इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में मात्र प्रथम मत मान्य है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में दोनों मत मान्य प्रतीत होते हैं। किन्तु हेमचन्द्र२३ आदि उत्तरकालीन आचार्यों के द्वारा द्वितीय मत को महत्त्व दिया गया है। उपर्युक्त दोनों मतों में से द्वितीय मत अधिक उचित प्रतीत होता है, इसके दो कारण हैं१. भावमन ज्ञानात्मकरूप होने से अरूपी होता है और अरूपी पदार्थों को छद्मस्थ नहीं जान सकते हैं। लेकिन भाव मन में उत्पन्न विचारों से द्रव्य मन में जिन मनोवर्गणा के स्कंधों का निर्माण होता है, वे पुद्गलमय होने से रूपी हैं और रूपी पदार्थों को छद्मस्थ जान सकता है। अतः मनःपर्ययज्ञान का विषय द्रव्य मन ही होता है, भाव मन नहीं। २. मन:पर्याय ज्ञान से साक्षात् अर्थ का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि मन:पर्ययज्ञान का विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है।३५ यदि मनःपर्यायज्ञानी मन के सभी विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं क्योंकि मन के द्वारा अरूपी द्रव्य का भी चिन्तन हो सकता है, लेकिन मन:पर्यय ज्ञानी इन्हें नहीं जानता है। अवधिज्ञानी सभी प्रकार के पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर सकता है। किन्तु
SR No.525084
Book TitleSramana 2013 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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