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________________ 40 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल - जून 2013 देश विकास, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि - दुर्वृष्टि, सुभिक्ष- दुर्भिक्ष आदि को जानता है। २ भूतकाल में आचरित, वर्त्तन, वाणी और विचार का किसी जीव को विस्मरण हो जाता है तो भी मन:पर्यय बिना पूछे ही जान सकता है। २३ इतना ही नहीं भविष्य के जन्मों को भी जान सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मन:पर्ययज्ञानी तीनों काल के विचार, वाणी और वर्तन को जान सकते हैं । २४ इस प्रकार प्रथम मतानुसार मन:पर्ययज्ञानी दूसरे के मन को साक्षात् जानता है। २. दूसरा मत - चिन्तन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएँ अर्थात् मनोगत अर्थ का विचार करने से जो मन की दशा होती है, उस दशा अथवा पर्यायों को मन: पर्यायज्ञाना प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु उन दशाओं में जो अर्थ रहा हुआ है, उसका अनुमान करता है अर्थात् मन वाले अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानते हैं क्योंकि मन का ज्ञान मुख्य और अर्थ का ज्ञान बाद की वस्तु है। मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष रूप से अर्थ का ज्ञान नहीं होता है । मनः पर्याय का वास्तविक अर्थ है मन की पर्यायों का ज्ञान, न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान । २५ एक पक्ष मन:पर्ययज्ञान का विषय दूसरे के मनोगत अर्थ को स्वीकार करता है और दूसरा पक्ष दूसरे के द्रव्यमन ( परचित्त का साक्षात्कार) को मन:पर्ययज्ञान का विषय मानता है। द्वितीय मत के समर्थक- जिनदासगणि, जिनभद्र, हरिभद्र, मलयगिरि, यशोविजय आदि आचार्यों ने द्वितीय पक्ष का समर्थन किया है अर्थात् द्रव्य मन की पर्यायों को मन:पर्ययज्ञान का विषय माना है । यहाँ पर प्रश्न उठाया गया है कि मन की पर्यायों को जानने के साथ उनमें चिन्त्यमान पदार्थों को जानने की मान्यता उचित है या अनुचित। इस सम्बन्ध में कहा गया है कि चिन्त्यमान पदार्थ मूर्त भी हो सकता है एवं अमूर्त भी। किन्तु दूसरे के मनोगत अर्थ को अमूर्त मानते हैं, तो वहाँ पर प्रथम मत के अनुसर अमूर्त मनोगत अर्थ को मन:पर्ययज्ञान का विषय मानने में विसंगति आयेगी क्योंकि छद्मस्थ जीव अमूर्त विषय को देख नहीं सकता है। विशेषावश्यक भाष्य में मन:पर्ययज्ञान का ज्ञेय : उपर्युक्त विसंगति को दूर करने के लिए जिनभद्र ने दूसरे के मन को मन:पर्ययज्ञान का विषय माना और बाह्य अर्थ को अनुमान का। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मन:पर्ययज्ञान में नहीं है क्योंकि ज्ञानात्मक चित्त तो अमूर्त (अरूपी) होता है। जबकि मन:पर्ययज्ञान का विषय मूर्त रूपी वस्तुएं हैं। सभी जैन दार्शनिकों के अनुसार मन:पर्ययज्ञानी रूपी द्रव्यों को जानता है । मन का निर्माण मनोद्रव्य की वर्गणा से होता
SR No.525084
Book TitleSramana 2013 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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