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________________ 36 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 तदुत्पत्तिवाद- दोनों का खण्डन धर्मोत्तर से कराते हैं तथा धर्मोत्तर अभिमत शब्दार्थ के मध्य कोई सम्बन्ध न होने का खण्डन स्वयं करते हैं। अन्त में जैन दार्शनिकों के मत का मण्डन करते हुए संकेत के सहकार से शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक भाव की सिद्धि करते हैं।१२ इस प्रकार ‘रत्नाकरावतारिका' में आचार्य रत्नप्रभसूरि शब्दार्थ सम्बन्ध के विषय में मीमांसकों के तादात्म्यवाद तथा नैयायिकों के तदुत्पत्तिवाद की समीक्षा में जहाँ बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर का समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं, वहीं वाच्य-वाचक सम्बन्ध की समीक्षा में बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर को ही पूर्व-पक्ष बनाकर स्वयं जैन-दर्शन सम्मत सिद्धान्त को उत्तर-पक्ष बनाकर वाच्य-वाचक सम्बन्ध की सिद्धि करते हैं। सन्दर्भ : यस्मिंस्तूच्चरिते शब्दे यदा योऽर्थः प्रतीयते। तमाहुरर्थ तस्यैव नान्यदर्थस्य लक्षणम्।।, वाक्यपदीय, सम्पा. श्री रघुनाथ शर्मा, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, २/३२८। अयमस्य पदस्यार्थ इति केचित् स तेन वा। योऽर्थः प्रतीयते यस्मात् स तस्यार्थः इति स्मृतिः।।,न्यायमंजरी-जयन्त भट्ट, पंचम आह्निकम्, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी १९८३, पृ. ४५। जैन दर्शन, श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी-५, तृ. सं., १९७४, पृ. २७३। रत्नाकरावतारिका, सम्पा. पं. दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद-९, द्वि. सं., १९९३, १.१, पृ. १६। वही, १.१, पृ. १६। वही, पृ. १७। वही, पृ. १७। वही, पृ. १८। तदुत्पत्तिपक्षेऽपि किं शब्दादर्थः उन्मज्जेत्, अर्थात् वा शब्द:? प्राचिकविकल्पे... प्रकृतशास्त्रारम्भाभियोगोऽपि निरुपयोग:स्यात्।- वही, पृ. १७/ वही, पृ. १९। ११. वही, पृ. १९। १२. वही, पृ. २२॥ ****
SR No.525084
Book TitleSramana 2013 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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