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________________ रत्नाकरावतारिका में शब्दार्थ-.... : 35 आचार्य रत्नभसूरि द्वारा तादात्म्य-सम्बन्ध की समीक्षा : तादात्म्य मत की आलोचना करते हुए आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि शब्द और अर्थ में अभेद है, तो दोनों अलग-अलग नहीं होंगे। सम्बन्ध तो दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में होता है, अत: ऐसी स्थिति में उनमें कोई सम्बन्ध ही नहीं होगा। दूसरे, यदि दोनों अभिन्न हैं तो कोई भी शब्द अपने निश्चित वाच्यार्थ का बोध नहीं करा सकेगा। यदि हम भिन्न-भिन्न शब्दों का उच्चारण करते हैं जैसे- घट, पट, गज आदि तो इनमें भिन्न-भिन्न अर्थों की प्रतीति नहीं होगी। इस प्रकार तादात्म्य-सम्बन्ध को लेकर आचार्य रत्नप्रभ विभिन्न प्रकार की आपत्तियाँ दिखाते हुए शब्दार्थ के मध्य तादात्म्य सम्बन्ध को युक्तिसंगत नहीं मानते। नैयायिक अभिमत तदुत्पत्ति-सम्बन्ध : नैयायिक अभिमत तदुत्पत्ति-सम्बन्ध का तात्पर्य है कि वे शब्द से अर्थ की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। उनके मत में बिना शब्द के अर्थ की उत्पत्ति नहीं होगी। बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर के माध्यम से रत्नप्रभसूरि प्रश्न करते हैं कि शब्द और अर्थ के मध्य तदुत्पत्ति सम्बन्ध मानते समय शब्द से अर्थ की उत्पत्ति मानी जाए अथवा अर्थ से शब्द की उत्पत्ति मानी जाए? पुन: आचार्य का तर्क है कि यदि शब्द से अर्थ की उत्पत्ति मानी जाए तो घट, पट, कलश, कुम्भ आदि शब्दों के उच्चारण करने के साथ ही इन पदार्थों की उत्पत्ति हो जानी चाहिए, परन्तु ऐसा अनुभव में नहीं है तथा यह तो सर्वविदित ही है कि अर्थ की उत्पत्ति अपने-अपने कारणों से होती है तथा शब्द की उत्पत्ति स्वर-यंत्रों से होती है जैसे- ओष्ठ, दंत एवं जिह्वा। इस प्रकार शब्द से अर्थ की या अर्थ से शब्द की उत्पत्ति मानने वाले नैयायिकों का तदुत्पत्ति सिद्धान्त भी युक्तिसंगत नहीं है। शब्दार्थ-सम्बन्य - जैन अभिमत वाच्य-वाचक भाव : रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि शब्दार्थ-सम्बन्ध के विषय में वाच्य-वाचक भाव की पुष्टि हेतु सर्वप्रथम बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर की तरफ से कुछ शंकाओं का उल्लेख करते हैं। बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर के अनुसार शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक भाव भी उचित नहीं है। इस सम्बन्ध में धर्मोत्तर की आपत्ति यह है कि यदि शब्दार्थ के मध्य वाच्य-वाचक भाव माना जाए तो पहले यह स्पष्ट करिए कि यह वाच्य-वाचक भाव शब्दार्थ से अभिन्न है अथवा भिन्न? ११ तत्पश्चात् धर्मोत्तर शब्दार्थ और वाच्य-वाचक भाव को परस्पर अभिन्न अथवा भिन्न मानने के दोनों ही पक्षों की असिद्धि दिखाते हैं। 'रत्नाकरावतारिका' में इस प्रकार उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में एक लम्बा वाद-विवाद दिखाया गया है। आचार्य रत्नप्रभसूरि मीमांसकों के तादात्म्यवाद तथा नैयायिकों के
SR No.525084
Book TitleSramana 2013 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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