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________________ 12 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 है। लोकालोक रूप निमित्त की उसमें रंच मात्र आवश्यकता नहीं है, यह शुद्धनिश्चय नय का कथन है। जब यह कहा जाता है कि ज्ञान लोकालोक को जानता है तो यह कथन व्यवहारनय का है। अतः व्यवहार रूप से ज्ञान अपने ज्ञेयाकारों को ही जानता है निश्चय से अपने को ही जानता है, यही परिनिष्ठित कथन है। कहा भी है - सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन।" अर्थात् केवलज्ञान में सारा विश्व झलकने पर भी आत्मा अपने ज्ञान का ही वेदन करता है। इसलिए यह कहा जाता है कि व्यवहार नय से केवली भगवान् लोकालोक को जानते हैं एवं निश्चय नय से केवल अपनी आत्मा को जानते हैं। जैनदर्शन कर्ता-कर्म के अभेदत्व को स्वीकार करता है। वह एक ही वस्तु में कर्ता-कर्म सम्बन्ध को स्वीकृत करता है। दो वस्तुओं के मध्य कर्ता-कर्म का भेदत्व उसे स्वीकृत नहीं है। ज्ञान एवं ज्ञेय भी कर्ता-कर्म का अनन्यत्व है, भेद नहीं। इस तथ्य को आचार्य अमृतचंद ने 'समयसार' की आत्मख्याति टीका में दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट किया है"जैसे दाह्य, जलने योग्य पदार्थ के आकार की होने से अग्नि को दहन कहते हैं तथापि उसमें दाह्य कृत अशुद्धता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञेयाकार होने से उस ज्ञान की 'ज्ञायकता' प्रसिद्ध है तथापि उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायक रूप से ज्ञात हुआ है वह स्वरूप प्रकाशन की अवस्था में भी दीपक की भांति कर्ता-कर्म का अनन्यत्व (एकता) होने से ज्ञायक ही है, स्वयं जानने वाला है, इसलिए स्वयं कर्ता ने अपने को जाना इसलिए वह स्वयं ही कर्म है, जैसे- दीपक घटपटादि को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है और अपने को अपनी ज्योति रूप शिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं, उसी प्रकार ज्ञायक को भी समझना चाहिए।" ज्ञान भी पर पदार्थों को प्रकाशित करने की अवस्था में ज्ञान ही है एवं स्वयं को प्रकाशित करने की अवस्था में भी ज्ञान ही है ऐसी ज्ञान-ज्ञेय की अभेदता है। पूर्वोक्त गाथा के भाव स्पष्टीकरण करते हए आचार्य आगे कहते हैं कि आत्मा को ज्ञायक नाम भी ज्ञेय को जानने से दिया जाता है, क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब झलकता है तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव होता है। तथापि उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि जैसा ज्ञेय, ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है वह ज्ञेय का अनुभव न होकर ज्ञायक का अनुभव होने से ज्ञायक ही है। यह जो जानने वाला है वह मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं, ऐसा अपना अभेद रूप अनुभव करता है तब इस जानने रूप क्रिया का कर्ता वह स्वयं ही है तथा जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है
SR No.525082
Book TitleSramana 2012 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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