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ज्ञान-ज्ञेय मीमांसा- जैनदर्शन का वैशिष्ट्य : 11 वाली है और रूपी पदार्थ स्वयं जानने में आने के स्वभाव वाले हैं उसी प्रकार आत्मा समस्त ज्ञेयाकारों को जानने के स्वभाव वाला है और पदार्थ स्वयं ज्ञेयाकारों को समर्पित हो जाने के स्वभाव वाले हैं। ऐसी ज्ञान की अद्भुत सामर्थ्य है। इसी प्रकार का भाव आचार्य कुन्दकुन्द ने भी समयसार में व्यक्त किया है"ज्ञान नेत्र की भांति अकारक व अवेदक ही है। यह नेत्र की भाति मात्र देखताजानता है" अर्थात् उस ज्ञेय का कर्ता-भोक्ता नहीं है। इस सन्दर्भ से ऐसा तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि यदि बाह्य अग्नि दर्पण की अग्नि का कारण नहीं है और दर्पण में उस समय अग्न्याकार परिणमन की योग्यता है तो फिर अग्नि न हो तब भी दर्पण को अग्नि को प्रतिबिम्बित करना चाहिए अथवा
अग्नि की समक्षता में भी दर्पण में अग्नि प्रतिभासित न होकर कुछ अन्य प्रतिभासित होना चाहिए। यह विचित्र तर्क है, यह तो दर्पण की स्वतंत्रता पर सीधा आघात है। यदि दर्पण के समक्ष अग्नि हो और वह अग्नि वैसी की वैसी दर्पण में प्रतिबिम्बित न हो तो हम दर्पण किस वस्तु को कहेंगे? पुनः यदि अग्नि के अभाव में भी दर्पण में अग्नि प्रतिबिम्बित हो अथवा अग्नि की समक्षता में दर्पण में अग्नि के स्थान पर वह प्रतिबिम्बित न हो तो दर्पण की प्रामाणिकता ही क्या रह जाएगी? अतः अग्नि का भी होना और दर्पण में भी सांगोपांग प्रतिबिम्बित होना यही वस्तु-स्थिति है। इसमें परस्पर या सापेक्षता के लिए किंचित् मात्र अवकाश नहीं है। इस प्रकार दर्पण और उसका अग्न्याकार अग्नि से सर्वथा पृथक्त्व तथा निर्लिप्तत्व ही रह जाता है। ज्ञान का तत्-अतत् स्वभाव दर्पण के समान ज्ञान भी ज्ञेय से अत्यंत निरपेक्ष रहकर अपने ज्ञेयाकार (ज्ञानाकार अर्थात् ज्ञेय के आकार जैसी अपनी ज्ञान की रचना) का उत्पाद-व्यय करता है। ज्ञान में ज्ञेय के इस अभाव को ज्ञान का अतत् स्वभाव कहते हैं। इसप्रकार उनके ज्ञेयों के आकार पारिणमित होकर भी प्रत्येक ज्ञेयाकार में ज्ञानत्व की धारावाहिकता कभी भंग नहीं होती अर्थात् ज्ञान के प्रत्येक ज्ञेयाकार में ज्ञान सामान्य का अन्वय अखण्ड तथा अपरिवार्तित रहता है। ज्ञान के प्रत्येक ज्ञेयाकार में ज्ञान ही प्रतिध्वनित होता है। इसे आगम में ज्ञान का तत् स्वभाव कहा जाता है। अनन्त लोकालोक रूप चित्र-विचित्र ज्ञेयाकारों का नियत समय में उत्पादन करने में ज्ञान स्वतंत्र है, इसमें इसे लोकालोक की कोई अपेक्षा नहीं होती न ही लोक से उसे कुछ लेना पड़ता है और न कुछ देना पड़ता है। ज्ञान में तो लोकालोक प्रतिबिम्बित होता है। ज्ञान के उस ज्ञेय जैसे आकार की रचना ज्ञान की उत्पादन सामग्री से होती