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________________ अर्द्धमागधी आगम- साहित्य में अस्तिकाय : 7 की दृष्टि से धर्मास्तिकाय की अपेक्षा अनन्तगुणा कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जीव एक भिन्न द्रव्य है इसलिए उसे अनन्तगुणा कहा गया है। पुद्गलास्तिकाय को तो द्रव्य की दृष्टि से जीव से भी अनन्तगुणा प्रतिपादित किया गया है। इसका कारण परमाणु को भी द्रव्य के रूप में समझना है। उपर्युक्त विवेचन से यह फलित होता है कि जात्यपेक्षया तो द्रव्य छह ही हैं, किन्तु व्यक्त्यपेक्षया द्रव्य अनन्त हैं। प्रत्येक वस्तु अपने आप में एक द्रव्य है। जो भी स्वतन्त्र अस्तित्ववान् वस्तु है वह द्रव्य है। इसीलिए द्रव्यापेक्षया जीव भी अनन्त हैं और पुद्गल भी अनन्त । काल को तो पुद्गल की अपेक्षा भी अनन्तगुणा स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि अस्तिकाय एवं द्रव्य का स्वरूप पृथक् है। अस्तिकाय तो द्रव्य है, किन्तु जो द्रव्य है वह अस्तिकाय हो यह आवश्यक नहीं। धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त द्रव्य आकाश में एक साथ रहते हुए भी एक-दूसरे को बाधित या प्रतिहत नहीं करते। वे किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के सहकारी बनते हैं। यथा-धर्मास्तिकाय से जीवों में आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग और काययोग प्रवृत्त होते हैं। अधर्मास्तिकाय से जीवों में स्थित होना, बैठना, मन की एकाग्रता आदि कार्य होते हैं। आकाशास्तिकाय जीव एवं अजीव द्रव्य का भाजन या आश्रय है। एक या दो परमाणुओं से व्याप्त आकाश प्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं तथा सौ परमाणुओं से व्याप्त आकाश प्रदेश में सौ करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं। जीवास्तिकाय से जीवों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन की अनन्त पर्यायों के उपयोग की प्राप्ति होती है। पुद्गलास्तिकाय से जीवों को औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास को ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है | " भगवतीसूत्र के बीसवें शतक में धर्मास्तिकाय आदि के अनेक अभिवचन (पर्यायवाची शब्द) दिए गए हैं, जिनसे इनका विशिष्ट स्वरूप प्रकाश में आता है। उदाहरणार्थ धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं- धर्म या धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह - विरमण, क्रोध - विवेक यावत् मिथ्या दर्शनशल्य-विवेक, ईर्या समिति यावत् उच्चार - प्रस्रवण खेल - जल्ल-सिंघाण परिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति यावत् कायगुप्ति । धर्मास्तिकाय के ये अभिवचन
SR No.525081
Book TitleSramana 2012 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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