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2 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 2 / अप्रैल-जून 2012 ग्रन्थों में पाठभेद क्या उचित हैं? आखिर इन पाठभेदों के पीछे कारण क्या हैं? इन पाठ-भेदों की प्रवृत्ति क्या है? इस दृष्टि से सम्पादन के उच्च मानदण्डों को अपनाने वाले जैन मनीषियों द्वारा सम्पादित कृतियों का भी अवलोकन किया गया पर पाठ-भेदों के स्वरूप पर विचार किया गया हो ऐसी सामग्री दृष्टिगत नहीं
हुई।
अतः मुनि पुण्यविजय द्वारा सम्पादित एवं महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई द्वारा प्रकाशित संस्करण ठाणांग-समवाओ' में उपलब्ध पाठान्तरों के स्वरूप का इस लेख में विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। समवायांगसूत्र के सम्पादन में महावीर जैन विद्यालय संस्करण हेतु ताड़पत्रीय एवं कागज की कुल सात हस्तप्रतों का उपयोग किया गया है उनके संकेत इस प्रकार
ताड़पत्रीय 1. खं- खंभात स्थित शान्तिनाथ जैनभण्डार की प्रति (प्रतिलिपिलेखन वर्ष 1292ई.), 2. जे1- जैसलमेर ज्ञाानभण्डार (खरतरगच्छीय जिनभद्रसूरि संस्थापित) की प्रति (प्रतिलिपि लेखन वर्ष1430 ई.), 3. जे2- जैसलमेर ज्ञानभण्डार की प्रति (प्रतिलिपिलेखन वर्ष अज्ञात). कागज 4. ला1- लालभाई दलपतभाई भा. सं. वि. मं. अहमदाबाद, क्र. 17044, 5. ला 2- लालभाई दलपतभाई भा. सं. वि. म. अहमदाबाद, क्र. 17045 6. हे। -आचार्य हेमचन्द्र जैन ज्ञानमन्दिर, पाटन. पोथी सं. 213, प्रतिक्र. 9996. 7. हे2 -आचार्य हेमचन्द्र जैन ज्ञानमन्दिर, पाटन, पोथी सं.7, प्रतिक्र.75, सामान्यरूप से समवायांग में पाठभेदों के कारण के रूप में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ सामने आती हैं1. जाव 2. समानार्थक शब्दों का प्रयोग 3. पण्णत्ते का अतिरिक्त प्रयोग 4. पादपूरक निपातों का प्रयोग 5. अर्द्धमागधी के स्थान पर महाराष्ट्री का प्रयोग 6. लेहिया द्वारा लिखते समय शब्दों का क्रम-परिवर्तन 7. हस्तप्रतिलिपिकार द्वारा वर्ण-क्रम-परिवर्तन