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18 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 2 / अप्रैल-जून 2012 (2) पुंसवन संस्कार- पुंसवन का अर्थ है, वह कर्म जिसके अनुष्ठान से 'पुंयुमानं' अर्थात् पुरुष का जन्म हो। यह संस्कार गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास व बालक को दुर्गुणों से बचाने हेतु किया जाता था। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह संस्कार ब्राह्मणों द्वारा कराया जाता था। वैदिकों में इस संस्कार के सन्दर्भ में यह उल्लेख मिलता है कि तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए यह संस्कार किया जाता था। (3) जातकर्म संस्कार- ये संस्कार वैदिक व श्रमण दोनों संस्कृतियों में बालक-बालिका के जन्मोपरान्त शुभ मुहूर्त, दिन, नक्षत्र में महोत्सव की भाँति मनाया जाता था। अंग साहित्य ज्ञाताधर्मकथांग' में इसे नाल-काटना कहा गया है। सुबाहु कुमार व देवदत्त के जातकर्म संस्कार के पश्चात् बाद के संस्कार हुए
थे।
(4) सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार- इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को प्रत्यक्ष रूप से सृष्टि का दर्शन कराना था। इसमें बालक को सर्वप्रथम सूर्य एवं चन्द्रमा का दर्शन कराया जाता था। वैदिक परम्परा में यह संस्कार प्रथम बार शिशु को शुद्ध वायु का सेवन कराना था। ज्ञाताधर्मकथांग में जन्म के तीसरे दिन यह संस्कार किये जाने का उल्लेख मिलता है।" औपपातिक सूत्र में यह संस्कार जन्म के दूसरे दिन किये जाने का उल्लेख मिलता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार राजा बलराम व प्रभावती ने अपने पुत्र को सूर्य-चन्द्रदर्शन संस्कार कराया था। (5) क्षीरासन संस्कार- यहाँ क्षीर से तात्पर्य दूध से है। इस संस्कार में बालक को सर्वप्रथम दुग्ध का आहार कराया जाता था। (6) षष्ठी संस्कार- बालक के जन्म के छठे दिन यह संस्कार आयोजित किया जाता था। इसमें शिशु की माता सहित कुल-वृद्धाएँ, स्त्रियाँ आदि गीत गाते हुए एवं वाद्ययंत्र बजाते हुए रात्रि जागरण करती थीं। ज्ञाताधर्मकथांग में इसे जागरिका (रात्रि-जागरण) कहा गया है। (7) शुचिकर्म- इस संस्कार का मूल प्रयोजन शुद्धिकरण करना था। इसमें माता को स्नान कराया जाता है। अंग साहित्य में इसके विधि-विधानों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। (8) नामकरण संस्कार- नामकरण संस्कार का उद्देश्य बालक को समाज से एवं समाज को अवतरित आगन्तुक (शिशु) से परिचित कराना था अर्थात् इसमें शिशु का नाम रखा जाता था। यह संस्कार महोत्सव की भाँति शिशु जन्म के दसवें तथा बारहवें दिन मनाया जाता था। भारतीय संस्कृति में अति प्राचीन काल से ही व्यक्तिगत नामों को महत्ता प्राप्त रही है जिसके फलस्वरूप नामकरण