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जैन अंग साहित्य में प्रतिबिम्बित संस्कार की वर्तमान में प्रासंगिकता
डॉ. योगेन्द्र सिंह
सुश्री श्वेता सिंह प्राचीनकाल से ही मानवजीवन में संस्कारों का अत्यन्त महत्त्व है। इन संस्कारों का विधान मानव के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से किया गया है।। जैन परम्परा में श्रावकों और श्रमणों के लिये कुछ संस्कार अलग-अलग है तो कुछ दोनों वर्गों के लिए आयोजित किये जाते हैं। इन संस्कारों का जैन कृतियों के आधार पर विवेचन किया गया है साथ ही वर्तमान समय में इन जैन संस्कारों की उपादेयता का भी मूल्यांकन प्रस्तुत लेख में किया गया है।- सम्पादक
जैन परम्परा का प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य आगम है। जैन संस्कृति में आगमों का वही स्थान है जो वैदिक संस्कृति में वेद, इसाई संस्कृति में बाइबिल एवं बौद्ध संस्कृति में त्रिपिटक को प्राप्त है। प्रायः श्वेताम्बर परम्परा में आगमों की संख्या पैंतालिस बतायी गई है। पैंतालिस आगमों में प्रारम्भ के बारह आगमों को अंग साहित्य कहा गया है। इनका संकलन ई. पू. पाँचवीं शताब्दी से द्वितीय शताब्दी के समकक्ष हुआ था। बारह अंग साहित्य क्रमशः इस प्रकार हैंआचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरौपपातिक, उपासकदशांग, विपाकसूत्र, प्रश्नव्याकरण तथा दृष्टिवाद। इनमें दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। ज्ञाताधर्मकथांग, अन्तकृद्दशांग तथा विपाकसूत्र में जातकर्म, बलिकर्म आदि संस्कारों का नामोल्लेख परिलक्षित होता है।
संस्कार की अवधारणा समाज के सापेक्ष होती है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही संस्कारों को धार्मिक मान्यता प्राप्त रही है। इससे मनुष्य में सामाजिक कर्तव्यों के साथ-साथ धार्मिक कार्यों की भी प्रेरणा जागृत होती है। संस्कारों को यह महत्ता वैदिक परम्परा की भाँति जैन परम्परा में भी प्राप्त रही है। जैन संस्कृति में संस्कार शब्द का अर्थ आन्तरिक दैहिक, मानसिक व बौद्धिक उन्नयन बताया गया है अर्थात् जिससे मनुष्य में मन की शुद्धता, देव-सन्निधान व धार्मिक आस्था विकसित होती है। उसे संस्कार कहते हैं।