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जिज्ञासा और समाधान : 79
दिगम्बर मान्यता
दिगम्बर परम्परा में भी इन्हीं नामों वाली साधु की बारह प्रतिमाएँ मिलती हैं। सल्लेखना के प्रकरण में कहा गया है कि यदि साधु की आयु एवं शरीर की शक्ति अधिक शेष है तो उसे शास्त्रोक्त बारह प्रतिमाओं को धारण करके क्रमशः आहार का त्याग करना चाहिए। महासत्त्वशाली, परीषहजयी तथा उत्तम संहनन वाला क्षपक साधु इन प्रतिमाओं को धारण करता है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान को करते हुए क्रमशः अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान को प्राप्त करता है। इस प्रकार ये सभी प्रतिमाएँ उत्तरोत्तर कठिन एवं श्रेष्ठ हैं। 1. मासिकी - दुर्लभ आहार - ग्रहण सम्बन्धी विधि लेकर नियम करता है - 'यदि एक मास में ऐसा आहार मिला तो आहार लूँगा अन्यथा नहीं'। मास के अन्तिम दिन वह प्रतिमायोग धारण कर लेता है। इसी तरह अग्रिम प्रतिमाओं में आहार विधि के कठोर नियम लेकर पूर्ववत् आहार न मिलने पर प्रतिमायोग धारण करता है। 2. द्विमासिकी, 3. त्रिमासिकी, 4. चतुर्मासिकी, 5. पंचमासिकी, 6. षड्मासिकी और 7. सप्तमासिकी।
8-10 सप्त- सप्त दिवसीय तीन प्रतिमाएँ भी पूर्ववत् सौ-सौ गुना अधिक कठिन विधि पूर्वक होती हैं। इनमें क्रमश: 3, 2 और 1 ग्रास आहार लिया जाता है। 11 अहोरात्रिकी तथा 12 रात्रिकी- इन दो प्रतिमाओं में अनागार क्रमशः चौबीस तथा बारह घण्टों का प्रतिमायोग (कायोत्सर्ग - आत्मध्यान) करता है। फलस्वरूप सूर्योदय होने पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। पश्चात् अन्तिम प्रतिमायोग करके सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है।
इस तरह दोनों परम्पराओं में श्रमण- प्रतिमाओं में थोड़ा सा अन्तर है। वस्तुतः ये वीतरागता -प्राप्ति के सोपान हैं। इनकी अवधि दोनों परम्पराओं में (उपवास आदि की अवधि न जोड़ने पर ) 28 मास साढ़े 22 दिन होती है।
सन्दर्भ
1. देखें, आयारदसा छह और सात दशायें । समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार । जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश।
2. प्रतिमा प्रतिज्ञा - अभिग्रहः । स्थानांगवृत्ति, पत्र 184 3. पं. आशाधर प्रणीत मूलाराधनादर्पण, गाथा 25 जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, पृ. 392-393
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प्रो० सुदर्शन लाल जैन