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vi : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 होता है। जैसे हमारे द्वारा किये गए भोजन का परिपाक होने पर वह वीर्य, मज्जा, हड्डी आदि के रूप में परिणमित हो जाता है वैसे ही हमारे द्वारा किया गया कर्म प्रमुख रूप से सात या आठ रूपों में विभक्त हो जाता है और अवान्तर भेदों के साथ 148 रूपों में विभक्त हो जाता है। देवता के मुख पर पड़े हुए वस्त्र की तरह ज्ञान गुण का प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय कर्म 5 प्रकार का है। राजद्वार पर स्थित प्रतिहारी की तरह दर्शन गुण-बन्धक दर्शनावरणीय कर्म 9 प्रकार का है। मधुलिप्त असिधारा की तरह सुख-दुःख का वेदक वेदनीय कर्म 2 प्रकार का है। मदिरापान की तरह हिताहित के विवेक का प्रतिबन्धक मोहनीय कर्म 28 प्रकार का है। श्रृंखला-बन्धन की तरह जीवन का मापक आयु कर्म 4 प्रकार का है। चित्रकार की तरह नाना प्रकार के शरीरादि की रचना में कारणभूत नाम कर्म 93 प्रकार का है। कुम्भकार के छोटे-बड़े बर्तनों की तरह उच्च-नीच कुल का ज्ञापक गोत्र कर्म 2 प्रकार का है। कोषाध्यक्ष की तरह सब कुछ ठीक होने पर भी लाभादि में प्रतिबन्धक अन्तराय कर्म 5 प्रकार का है। इन आठों प्रकार के कर्मों का विस्तार से विचार जैनदर्शन के कर्मग्रन्थों में किया गया है। इन कर्म-बन्धनों के हट जोर पर आत्मा में आठ विशेष गुण प्रकट होते हैं- अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व
और अनन्तवीर्य। इन आठों कर्मों में सबसे प्रधान मोहनीय कर्म है जिसके नष्ट हो जाने पर शेष कर्मबन्धन शिथिल होकर टूट जाते हैं। श्रमण के मुख पृष्ठ पर चित्रित कर्मवृक्ष के द्वारा संसारी जीवों की विविध परिस्थितियों की विविधता बतलायी गई है। यहाँ वृक्ष की शाखा से पृथक् फल बतलाने का कारण है 'उस कर्म-अभावजन्य परिणाम'। इस अंक में स्थायी स्तम्भ के अतिरिक्त छः आलेख दिये गए हैं। पूर्व की अपेक्षा इस अंक का आकार थोड़ा छोटा किया गया है ताकि हम इसके स्तर को उन्नत बना सकें और वेबसाइट पर प्रसारित कर सकें। आगे के अंकों में जो लेख प्रकाशित किये जाएंगे उनकी प्रकाशनपूर्व तत्-तत् विषय के विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा कराई जाएगी। इस अंक का संशोधन डॉ० श्री प्रकाश पाण्डेय, संयुक्त निदेशक तथा डॉ0 नवीन कुमार श्रीवास्तव, रिसर्च एसोसिएट के द्वारा किया गया है जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। श्री सूरज कुमार मिश्रा, कार्यालय सहायक तथा वर्द्धमान मुद्रणालय दोनों क्रमशः कम्पोजिंग तथा सत्वर मुद्रण हेतु धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रो० सुदर्शन लाल जैन