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सम्पादकीय
हम अपने जीवन में देखते हैं कि कोई व्यक्ति कठोर परिश्रम करके भी अच्छा फल प्राप्त नहीं करता है, कोई व्यक्ति अल्प परिश्रम करता है और बहुत लाभ प्राप्त करता है। किसी के पास सुख के अनेक साधन हैं परन्तु वह किसी न किसी कारण से दुःखी रहता है। किसी के पास सुख का कोई साधन नहीं हैं परन्तु वह मस्ती में गीत गाता है और सुख का अनुभव करता है। कोई बहुत अच्छे कार्य करता है परन्तु उसे यश के स्थान पर अपयश की प्राप्ति होती है। कोई चालबाजी से गलत कार्य करता है और उसे यश की प्राप्ति होती है। किसी के जीवन, में सभी प्रकार की अनुकूलताएँ हैं फिर भी वह सफल नहीं होता है। किसी के जीवन में प्रतिकूलताएँ ही प्रतिकूलताएँ हैं फिर भी अचानक उसे यश, पद, धन आदि की प्राप्ति हो जाती है। कोई व्यक्ति चाहता है कि हम धार्मिक कार्य, आत्म-चिन्तन तथा दूसरों की भलाई के कार्यों को करें, परन्तु वह कर नहीं पाता है। कोई सोचता है कि नारी का शरीर हाड़-मांस का घिनौना रूप है तथा इसमें कोई रस नहीं है फिर भी जब वह किसी सुन्दर स्त्री को देखता है तो उसके प्रति आकर्षित होकर कामासक्त हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? अधि कतर लोगों का कहना है "हरि-इच्छा या ईश्वर-इच्छा"। इस तरह वह अपना सब कुछ परमपिता परमात्मा पर छोड़ देता है और वह सोचता है कि हम परमपिता की कठपुतली हैं और वह जैसा हमें नचाता है, हम वैसा नाचते हैं। इस तरह वह अपने अपराध को परमपिता पर मढ़ देता है। कुछ विचारक ऐसे भी हैं जो यह कहते हैं कि यह तो हमारा भाग्य है, हम इसमें कुछ नहीं कर सकते हैं। यदि उपादान में शक्ति होती है तो निमित्त अपने आप आ जाते हैं। इस तरह वह नियतिवादी होकर पुरुषार्थ से किनारा कर लेता है जबकि सत्य तो यह है कि व्यक्ति स्वयं अपना कर्ता और विकर्ता है। इसमें कोई दूसरा हेतु नहीं है। जैन दर्शन में इसका हेतु कर्म बतलाया गया है। कर्म स्वोपार्जित बन्धन है जिसके कारण विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। कर्म-बन्धन के पांच हेतु बतलाये गए हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनेमें मिथ्यात्व और कषाय की भूमिका बलवती है। इनके वशीभूत होकर जब हम मन-वचन-काय की क्रिया करते हैं तो राग-द्वेष का निमित्त पाकर कर्म आत्मा के साथ बँध जाते हैं। यदि राग-द्वेष का अभाव होता है तो कर्म-पुद्गल आत्मा के पास आते अवश्य हैं परन्तु बन्ध को प्राप्त नहीं होते हैं। हमारे राग-द्वेष की तीव्रता, मंदता आदि के आधार पर कर्मों का प्रकृति-बन्ध, प्रदेश-बन्ध, स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्ध