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परम पूज्य श्रमण संघीय आचार्य डा. शिवमुनि जी महाराज द्वारा घोषित श्रावकवीतरागतावर्ष (2012) के उपलक्ष में विशेष लेख भेदविज्ञान द्वारा श्रावक - लोभसंवरण
डॉ. अशोक कुमार सिंह
अनुपम पराक्रम के धारक - क्रोधादि कषायों के उच्छेदक तीर्थकर 'द्वारा प्रवर्तित चातुर्वर्ण संघ रूप तीर्थ' - श्रावक, श्राविका, श्रमण, श्रमणी में से प्रथम दो आगारी हैं। आध्यात्मिक के साथ-साथ सामाजिक दायित्व का निर्वहन इनका परम पुनीत धर्म है। इन आगारियों का मूल बारह व्रत - पालन में निहित है। यह भी सुज्ञात है कि आत्मा के स्वाभाविक गुणों के विघातक और भवबन्धन की श्रृंखला बढ़ाने वाले कर्म-बन्धन के प्रमुख कारण कषाय हैं। श्रावक के सम्यक् आचरण और सामाजिक दायित्व-निर्वाह की बाधाओं में क्रोधादि चार कषायों में लोभ प्रमुख है। लोभ पर विजय नितान्त आवश्यक है। विना लोभ से निवृत्ति और वात्सल्यगुण के सद्भाव के लोकोपकार की आधार भित्ति और श्रावक के मूल दो कर्त्तव्यों में से एक दान में प्रवृत्ति कदापि सम्भव नहीं है। वात्सल्य गुण परोपकार का आध र है । सन्तोष-वृत्ति लोभ पर विजय का प्रमुख कारण है। सांसारिक परिग्रहों में अनासक्ति का भाव रखने से वीतरागता उत्पन्न होती है । परन्तु स्व- पर विवेकरूप भेद - ज्ञान इसका सर्वजनसुलभ, सहज एवं अमोघ उपाय है। इसी आलोक में प्रस्तुत आलेख 'भेदविज्ञान द्वारा श्रावक - लोभसंवरण' प्रस्तुत है। इस लेख में श्रावक का लक्षण, बारहव्रत पालन के कारण श्रावक कहे जाने वाले श्रावक का व्यावहारिक स्वरूप, पूजा और दानरूप दो मूल कर्त्तव्यों वाले श्रावक के सामाजिक कर्त्तव्य, दान का महत्त्व, कषाय-सामान्य का लक्षण, कषाय के दुर्गुण, लोभ का स्वरूप, लोभ के पर्यायवाची, लोभ के दुर्गुण, लोभ - कषाय पर विजय की अनिवार्यता, लोभ- कषाय-विजय हेतु शास्त्र - प्रतिपादित उपाय, वात्सल्यगुण, वीतरागता, लोभ ही नहीं समस्त आसक्तियों को दूर करने के अचूक उपाय रूप भेदज्ञान का स्वरूप, भेदज्ञान साधना की विधि, भेदज्ञान के आलम्बन, भेदज्ञान-आलम्बनों के सतत् अभ्यास की आवश्यकता, भेदज्ञानसाधना का परिणाम आदि विषयों का प्रसंगवश क्रमानुसार विवेचन किया गया है।
श्र धातु से सुनने अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय होकर श्रावक शब्द की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ होता है सुनने वाला । उपासक और श्राद्ध इसके अन्य पर्यायवाची