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कहकोसु (कथाकोश) में वर्णित राजनैतिक चिंतन : ६३ जगत् का पति, अत्यन्त शोभायमान परिपाटी का पालन करने वाला, सम्पत्ति को प्राप्त करने वाला, सुवर्ण की निधि से युक्त, देदीप्यमान रत्नों के खजानों से युक्त, पृथ्वी के वैभव का कारण, नगरों के हर्ष का कारण, प्रजा हितकारी, चौसठ कलाओं का स्वामी, दीनों का हितैषी तथा शत्रुओं का अधिपति होता है। काव्य के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि महाबलादि राजाओं में ये गुण पूर्णरूप से व्याप्त थे। राजा महाबल अत्यन्त धैर्यशाली, उदार, प्रजा की रक्षा में समर्थ एवं समस्त गुणों का संकेत भवन या एकत्र मिलने का स्थान था। राजा के कर्तव्य जैन सूत्रों में राजा के कर्तव्यों के विषय में उल्लेख आता है कि वह सोना, चाँदी, मणि, वस्त्र, वाहन, कोष और भण्डार की वृद्धि करे। भूमि का विस्तार करे, पशु और धान्य की वृद्धि करे। राजा को पुर, जपनद, राजधानी, सेवा और अन्तःपुर का स्वामी तथा रक्षक होना चाहिए।१२ .. राजा का उत्तराधिकार साधारणतया राजतंत्र वंशानुगत ही था। उत्तराधिकार वंश परम्परागत था तथा ज्येष्ठता का नियम प्रधान माना जाता था अर्थात् राजा की मृत्यु अथवा उसके राज्य का त्याग करने के उपरान्त उसका ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता था। कहकोसु में उल्लेख आता है कि महापद्म राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र पद्म को राजा बनाया। कहकोसु में यह भी उल्लेख आता है कि यशोधर राजा के द्वारा ज्येष्ठ पुत्र अनन्तवीर्य और श्रीधर को राज्य दिया गया परन्तु दोनों पुत्रों के द्वारा राज्य अस्वीकार करने पर लघु पुत्र प्रियचन्द्र को राजा बनाया। यह उल्लेख इस बात का द्योतक है कि ज्येष्ठ पुत्र द्वारा राज्य अस्वीकार किये जाने पर कनिष्ठ पुत्र भी राजा बन सकता है।१३।। मंत्रिमंडल (अमात्य) राज्य की सप्त प्रकृतियों में राजा के पश्चात् द्वितीय स्थान मंत्रियों को दिया जाता है। मंत्रियों के सत्परामर्श पर ही राज्य का विकास, उन्नति एवं स्थायित्व निर्भर है। साधारण कार्यों में भी एक व्यक्ति की अपेक्षा दो व्यक्तियों का विचार करना श्रेष्ठ माना जाता है फिर राजकार्य तो बहुत जटिल होते हैं तब उसे अकेला राजा किस प्रकार कर सकता है। सोमदेव ने मंत्रियों या अमात्यों को राज्य-शासन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका मानना है कि जिस प्रकार रथ का एक चक्र दूसरे चक्र की सहायता के बिना घूम नहीं सकता उसी प्रकार अकेला राजा भी अमात्यों की सहायता