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________________ परीक्षामुख में प्रमाण- लक्षण निरूपण : एक अध्ययन : ५५ वे स्वीकार नहीं कर सके । माणिक्यनन्दी से पूर्व के भी आचार्य इस लक्षण को आत्मसात नहीं कर सकें। चूँकि यह अपूर्व पद जैन परम्परा के लिए नया था सम्भवतः इसी को ध्यान में रखकर माणिक्यनन्दी ने अपने अपूर्व पद को स्पष्ट करने के लिए दो सूत्र दिये - १. अनिश्चितोऽपूर्वार्थ४ और २. दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् २५ अब क्रम से इन दोनों सूत्रों का विवेचन करेंगे अनिश्चितोऽपूर्वार्थ अर्थात् जिस पदार्थ का पहले किसी प्रमाण से निश्चय न किया गया हो, वह अपूर्वार्थ कहलाता है। धारावाहिक ज्ञान एक ही वस्तु को विषय बनाता रहता है, अतः वह अप्रमाण है। प्रमाण की प्रमाणता तो तभी कहलाएगी जब वह किसी भी प्रमाण के द्वारा न जानी गयी वस्तु को विषय बनाता हो । यदि यह कहा जाये कि प्रत्यक्षादि के द्वारा जाने गए विषय में अनुमानादि प्रमाणों के प्रवृत्त होने पर वे अप्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि उनका विषय अपूर्वार्थ नहीं रहा, इस शङ्का का समाधान है कि प्रथम प्रमाण से ज्ञात प्रमाण में यदि विशेषता सहित अन्य ज्ञान प्रवृत्त होता है तो उसके लिए वह अपूर्वार्थ है । जैसे प्रथम प्रमाण से जाना कि यह 'मनुष्य' है, तो दूसरे प्रमाण से जाना कि यह स्त्री है या पुरुष, अथवा अमुक संज्ञा से संज्ञित अमुक स्त्री है या पुरुष, ऐसा विशेष रूप से जाना तो वह ज्ञान प्रमाण ही है। स्वरूप से अथवा विशेषरूप से जो निश्चित नहीं है, वह सम्पूर्ण पदार्थ अपूर्वार्थ है । दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् अर्थात् पूर्व में देखे हुए पदार्थ में भी यदि समारोप अर्थात् संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय आ जाता है तो वह पदार्थ भी अपूर्वार्थ बन जाता है जैसे- पढ़ी हुई पुस्तक अनभ्यास से पुनः अपठित जैसी हो जाती है। मीमांसादर्शन में प्रभाकर मत वाले सर्वथा अपूर्व अर्थ को ही प्रमाण का विषय मानते हैं। उनका खण्डन इस सूत्र में किया गया है। जैनदर्शन में प्रमाण के विषय में कथंचित् अपूर्वार्थता स्वीकृत है। इसी कारण व्याप्ति ज्ञान में ही प्रवृत्त अनुमान ज्ञान की भी प्रमाणता सिद्ध हो जाती है। ऐसे ही पूर्वार्थग्राही स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि परोक्ष प्रमाणों में भी प्रमाणता सम्भव है। दूसरी तरह सर्वथा अपूर्वार्थग्राही मानने पर द्विचन्द्रादि का ज्ञान भी सत्य हो जाएगा, क्योंकि एक चन्द्र में द्विचन्द्र का ज्ञान तो अपूर्व विषयवाला है। `यदि कहा जाये कि केवलज्ञानी के ज्ञान ने त्रिकालवर्ती द्रव्य-गुण-पर्यायों को जब एक समय में ही बिषय बना लिया तो उत्तरवर्ती ज्ञान कैसे गृहीतग्राही हुआ ? प्रथम पल में जिन पदार्थों को वर्तमानवत् और भविष्य को भविष्यवत् जान रहा था, उत्तरकाल
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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