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________________ परीक्षामुख में प्रमाण-लक्षण निरूपण : एक अध्ययन : ५१ इसका आशय यह है कि यदि आन्वीक्षिकी में न्यायशास्त्र प्रतिपादित संयम, छल, जाति आदि का प्रयोग किया जाता है तो वह न्यायविद्या है अन्यथा वह अध्यात्मविद्या है। इस तरह आन्वीक्षिकी का विषय आत्मविद्या भी है और हेतुवाद भी है। जैन दर्शन में प्रतिपादित न्याय प्रत्येक दर्शन या धर्म के प्रवर्तक की एक विशेष दृष्टि होती है जो उसकी आधारभूत होती है, जैसे भगवान बुद्ध की मध्यम प्रतिपदा दृष्टि और शङ्कराचार्य की अद्वैतदृष्टि। जैनदर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी एक विशेष दृष्टि रही है, उसे अनेकान्तवाद कहते हैं। जैनदर्शन का समस्त आचार-विचार उसी के आधार पर है। इसी से जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहलाता है। अनेकान्तवाद और जैनदर्शन में परस्पर पर्यायवाची हो गए हैं। वस्तु सत् ही है या असत् ही है या नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार की मान्यता को एकान्त कहते हैं और उसका निराकरण करके वस्तु को अपेक्षाभेद से सत्-असत्, नित्य-अनित्य मानना अनेकान्त है। अन्य दर्शनों में किसी को नित्य और किसी को अनित्य माना गया है। किन्तु जैनदर्शन में कहा गया है- 'दीपक से लेकर आकाश तक एक से स्वभाव वाले हैं। यह बात नहीं है कि आकाश नित्य हो और दीपक अनित्य हो। अत: कोई भी वस्तु इस स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती क्योंकि सब पर स्याद्वाद या अनेकान्तवाद भाव की छाप लगी हुई है। जिन आज्ञा के द्वेषी ही ऐसा कहते हैं कि अमुक वस्तु नित्य ही है और अमुक वस्तु अनित्य ही है। न्याय या तर्कशास्त्र का मुख्य अङ्ग प्रमाण है। जैनदर्शन में न्याय को समझाने के लिए प्रमाण की विस्तृत व्याख्या की गई है। माणिक्यनन्दीकृत परीक्षामुख (९५० ई०) भी इससे अछूता नहीं है। माणिक्यनन्दी ने अपने सूत्रग्रन्थ को न्यायशास्त्र की दृष्टि से प्रणीत किया है। इसी तथ्य को केन्द्र में रखकर हम प्रमाण के लक्षणों का विवेचन इस आलेख में कर रहे हैं। प्रमाण के स्वरूप के सन्दर्भ में भारतीय दर्शनों में मुख्य रूप से दो दृष्टियाँ उपलब्ध होती हैं- प्रथम, ज्ञान को प्रमाण मानने वाली दृष्टि एवं दूसरी इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानने वाली दृष्टि। जैन और बौद्ध ये दोनों दर्शन ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। दोनों में मात्र इतना अन्तर है कि जैनदर्शन में सविकल्प ज्ञान को प्रमाण मानते हैं और बौद्ध दर्शन में निर्विकल्प ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। दूसरी परम्पराएँ न्यायवैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक आदि सभी किसी न किसी रूप में इन्द्रियादि
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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