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________________ जैन दर्शन में प्रमेय का स्वरूप एवं उसकी सिद्धि : ४१ सामान्य एवं विशेष जैनदर्शन में तिर्यक सामान्य एवं ऊर्ध्वता सामान्य के भेद से सामान्य दो प्रकार का बतलाया गया है।१९ एक जाति के सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले सदृश-परिणाम (सादृश्य) को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे- खण्डी, मुण्डी आदि अनेक गायों में गोत्व का पाया जाना।२० तात्पर्य यह है कि गायों का एक तबेला है जिसमें कई गायें हैं जिनके नाम खण्डी, मुण्डी इत्यादि रखे गए हैं। जब इन खण्डी, मुण्डी इत्यादि को 'यह भी गाय है, यह भी गाय है' कहते हैं तब उन सब गायों में 'गौ गौ' ऐसा जो अनुवृत्त प्रत्यय होता है वह गोत्व सामान्य (गायपना) के कारण होता है। यह गोत्व, मनुष्यत्व, घटत्व इत्यादि तिर्यक् सामान्य कहलाता है। इसी तरह पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे स्थास, कोश, कुशूल आदि घट की विभिन्न पर्यायों में मिट्टी रहती है।२१ अर्थात् एक ही द्रव्य की पूर्वापर-व्यापी अनेक पर्यायों में पाये जाने वाले सादृश्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं। तात्पर्य यह है कि काल सदैव आगे की ओर अर्थात् ऊपर की ओर चलता है, इस अपेक्षा से इसका नामकरण ऊर्ध्वता सामान्य किया गया है। जैसे मिट्टी से घड़ा बनाते समय मिट्टी द्रव्य हुआ और घट पर्याय किन्तु इस घट के बनने से पूर्व मिट्टी द्रव्य अन्य पर्यायों को भी धारण करता है, वे हैं- स्थास, कोश, कुशूल आदि।२२ इन सब पर्यायों में मिट्टी द्रव्य विद्यमान रहता है। ये पर्यायें एक के बाद एक होती हैं अतः इनमें पूर्वाकार का परिहार उत्तराकार की अवाप्ति (प्राप्ति) के मध्य स्थित द्रव्य ही ऊर्ध्वता सामान्य का विषय है। यहाँ तिर्यक् सामान्य एवं ऊर्ध्वता सामान्य में प्रमुख अन्तर यह है कि तिर्यक् सामान्य में द्रव्य अनेक हैं और समय एक है किन्तु ऊर्ध्वता सामान्य में द्रव्य एक है और समय अनेक हैं।२३ इसी तरह विशेष भी पर्याय विशेष और व्यतिरेक विशेष के भेद से द्विविध हैं।२४ एक ही द्रव्य में होने वाले क्रमवर्ती परिणामों को पर्याय विशेष कहते हैं। जैसे आत्मा में हर्ष, विषादादि परिणाम क्रम से होते हैं।२५ तात्पर्य यह है कि एक ही द्रव्य में क्रम से अनेक परिणाम होते रहते हैं। आत्मा नामक द्रव्य में कभी हर्ष होता है तो कभी विषाद, कभी सुख होता है तो कभी दुःख। ये सब आत्मा के पर्याय हैं और इन्हीं को पर्याय विशेष कहते हैं। इन पर्यायों में व्यावृत्त प्रत्यय होता है जिससे हमें यह ज्ञान होता है कि हर्ष पर्याय विषाद पर्याय से भिन्न है। ये विभिन्न पर्यायें पद्गल आदि सब द्रव्यों में होती हैं। सोने का मुकुट, कुण्डल आदि विशेष पर्यायें हैं जिनमें व्यावृत्त प्रत्यय पाया जाता है। आचार्य माणिक्यनन्दी कहते हैं कि एक पदार्थ की अपेक्षा अन्य पदार्थ में रहने वाले विसदृश परिणाम को व्यतिरेक कहते हैं, गाय, भैंस आदि की
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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