________________
३४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ उपर्युक्त श्लोक के आधार पर द्रौपदी के पतियों की संख्या तो पाँच ही सिद्ध होती है; किन्तु इस श्लोक से यह सहज अनुमान लग जाता है कि बौद्ध धर्म में 'द्रौपदी' आदर्श चरित के रूप में चित्रित नहीं है, अपितु उसकी चरित्रहीनता प्ररूपित की गयी है। निश्चित रूप से यह बात सर्वथा नवीन है जो अन्य परम्पराओं से पृथक् है। सम्भव है, बौद्ध धर्म में नारी को 'तुच्छ' सिद्ध करने के लिए यह परिवर्तन किया गया हो। जातकों के रचनाकाल के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत नहीं मिलता। तीसरी-चौथी शताब्दी ई० इसका समय माना जाता है। जातकों के कर्ता आर्यशूर का समय ई० की चतुर्थ शताब्दी के लगभग माना गया है।३३ इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध द्रौपदी-कथा के प्रारम्भिक स्रोत आर्षकाव्य 'महाभारत' में ही द्रौपदी की कथा पूर्ण विकसित हो चुकी है। पश्चाद्वर्ती साहित्य इस सम्बन्ध में कोई महत्त्वपूर्ण सूचना नहीं देता। वैदिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रन्थों ने उसके चरित में कहीं कोई कमी नहीं आने दी है; किन्तु जैन-कवियों ने यथारुचि द्रौपदी-कथा में परिवर्तन किया है। यद्यपि कवि को मूल कथा में यथावसर परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त है; यदि ऐसा परिवर्तन पात्र के चरित की दृष्टि से और कथारस की दृष्टि से उपयोगी हो, जैसा कि आचार्य धनञ्जय३४ ने कहा है -
यत्तत्रानुचितं किञ्चिन्नायकस्यरसस्य वा ।
विरुद्धं तत्परित्याज्यमन्यथा वा परिकल्पयेत् ।।। इस प्रकार जब हम 'महाभारत' में विद्यमान द्रौपदी के चरित से जैन-काव्यों में चित्रित द्रौपदी-स्वरूप की तुलना करते हैं, तो उसमें एक मुख्य विशेषता उभर कर सामने आती है, वह यह कि जैन कवियों ने वैदिक परम्परा के काव्यों में उपलब्ध चरितों का अपने प्रयोजन (हिंसा और असंयम का कुफल प्रदर्शन) की दृष्टि से परिवर्तन किया है। मूल कथा में परिवर्तन की प्रवृत्ति में रस-दृष्टि प्रधान नहीं है और न चरितों के उदात्तीकरण की दृष्टि ही है, मात्र कथा को अपना परिवेश देना ही प्रधान लगता है।
सन्दर्भ
م
महाभारत, अनु० पं० रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय, गोविन्द भवन कार्यालय, गीताप्रेस, गोरखपुर, चतु० संस्क०, १९८८, आदि पर्वस्वर्गारोहण पर्व भागवतपुराण, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, १/५/५०, १/२२/२९ ब्रह्मवैवर्तपुराण, सम्पा०- जीवानन्द भट्टाचार्य, श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई, १९०६, २/१५
نه سه