SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में काल का स्वरूप : २३ क्रम के स्पर्श कर लेता है, तो उसे बादर भाव पुद्गल परावर्तन कहते हैं एवं क्रम से स्पर्श करने पर सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्तन कहलाता है। औदारिक पुद्गल परावर्तन का अभिप्राय है संसार की समस्त पुद्गल वर्गणाओं को औदारिक के रूप में परिणत करके छोड़ देने पर उसमें लगने वाला काल। इसी प्रकार वैक्रिय आदि अन्य पुद्गल परावर्तन को समझना चाहिए। औदारिक आदि सात पुद्गल परावर्तनों में सबमें अनन्त काल लगता है, तथापि कार्मण पुद्गल परावर्तन में सबसे कम काल लगता है एवं वैक्रिय पुद्गल परावर्तन में सबसे अधिक।४ सन्दर्भ : & (१) सन्मतितर्कप्रकरण ३. ५२ पर अभयदेवसूरि कृत टीका, गुजरात पुरातत्त्व मंदिर, अहमदाबाद, संवत् १९८०, पृ० ७११ । (२) आचारांग पर शीलाङ्क टीका, १.१.१.३, श्री सिद्ध साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, १९३५ (३) शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्तबक २, श्लोक ५४, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, बम्बई (४) महाभारत आदिपर्व, प्रथम अध्याय, श्लोक २४८ एवं २५० की प्रथम पंक्तियाँ, गीताप्रेस, गोरखपुर, चतु० संस्क०, १९८८ (१) अथर्ववेद, काण्ड १९, अध्याय ६, सूक्त ५३, मंत्र १०, हरियाणा साहित्य संस्थान, रोहतक, वि०सं० २०४३ (२) अथर्ववेद, काण्ड १९, अध्याय ६, सूक्त ५४, मंत्र १, पूर्वोक्त कालश्च नारायणः। - नारायणोपनिषद्, २, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, २००२ शिवपुराण, वायुसंहिता (पूर्व भाग), श्लोक १६, मोतीलाल बनारसीदास, बनारस-दिल्ली, १९७३ श्री विष्णुपुराण, प्रथम भाग, प्रथम अंश, सृष्टिप्रक्रिया, पृ० ९, गीता प्रेस, गोरखपुर, १९५६ भगवद्गीता, ११.३२, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, १९८७ श्वेताश्वतरोपनिषद् , प्रथम अध्याय, श्लोक २, भारतीय विद्या प्रकाशन. वाराणसी-दिल्ली, २००२ वैशेषिक सूत्र, अ०१, प्रथम आहनिक, सूत्र ५, गुजराती मुद्रणालय, ;
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy