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________________ जैन दर्शन में काल का स्वरूप : १७ जाए तो अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। वर्तना को यदि धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों का ही कार्य माना जाए तो उपादान कारणों की भिन्नता होने से इनसे एक प्रकार का कार्य होना सम्भव नहीं है, क्योंकि भिन्न-भिन्न उपादान कारण भिन्न-भिन्न कार्यों को जन्म देते हैं, किसी एक प्रकार के कार्य को नहीं।५० अत: काल को ही वर्तना का कारण मानने से समस्या का निराकरण हो जाता है। परिणाम का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए पूज्यपाद कहते हैं- "द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः। जीवस्य क्रोधादिः, पुद्गलस्य वर्णादिः।५१ द्रव्य की अपरिस्पन्दात्मक पर्याय को ही परिणाम कहते है। यह एक धर्म की निवृत्तिरूप तथा अन्य धर्म की उत्पत्तिस्वरूप होता है। आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में परिमाण को स्पष्ट करते हुए कहा है- "द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगवित्रसालक्षणो विकारः परिणामः विस्रसापरिणामोऽनादिरादिमांश्च।"५२ स्वजाति का त्याग किए बिना द्रव्य का प्रयोग लक्षण एवं विस्रसा लक्षण वाला विकार परिणाम कहलाता है। इनमें विस्रसा परिणाम अनादि एवं आदिमान के भेद से दो प्रकार का है। उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में 'तभावः परिणामः'५३ सूत्र द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों तथा उनके गुणों का स्वभाव ही परिणाम है और वह अनादि एवं आदिमान के भेद से दो प्रकार का है।५४ धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यों में अनादि परिणाम होता है तथा रूपी पुद्गल द्रव्य तथा जीव में अनादि एवं आदिमान दोनों परिणाम पाये जाते हैं। यह परिणमन रूप कार्य भी काल के बिना सम्भव नहीं। पर्याय परिणमन ही यहाँ परिणाम है। परिणाम को स्वभाव परिणाम एवं विभाव परिणाम के रूप में भी विवेचित किया गया है। जीव के क्रोधादि परिणाम विभाव परिणाम हैं तथा ज्ञान, दर्शनादि स्वभाव परिणाम हैं। क्रिया परिस्पन्दात्मिका होती है। तत्त्वार्थ भाष्य में गति को क्रिया कहा है तथा इसे तीन प्रकार का निरूपित किया गया है- प्रयोगगति, विस्रसागति एवं मिश्रिका।५५ पूज्यपाद देवनन्दी ने प्रायोगिक एवं वैस्रसिक ये दो भेद निरूपित करते हए शकट आदि की गति को प्रायोगिक एवं मेघ आदि की गति को वैस्रसिक कहा है।५६ शकट को अश्व या वृषभ खींचते हैं, अत: जीव के प्रयत्न से युक्त होने के कारण यह प्रायोगिकी गति है तथा मेघ आदि स्वत: स्वाभाविक गति करते हैं अतः उनकी गति वैस्रसिकी कहलाती है। लुढ़कती हुई गेंद को पैर से धक्का मारने पर जो गति होती है उसे मिश्रिका कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें स्वत: गति के साथ जीव का प्रयत्न भी सम्मिलित है।
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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