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________________ १२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ जैनदर्शन में काल की द्रव्यता विषयक मतभेद : जैन दर्शन में काल को द्रव्य स्वीकार करने के सम्बन्ध में मत- वैभिन्न्य है । तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति अथवा उमास्वामी 'कालश्चेत्येके' २१ सूत्र से मतभेद का संकेत करते हैं। जैन दर्शन में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा गया है२२, अतः उसमें काल द्रव्य का समावेश स्वत: हो जाता है, किन्तु भगवतीसूत्र में लोक को पंचास्तिकायात्मक भी कहा गया है। २३ पंचास्तिकाय में काल का अन्तर्भाव नहीं होने से उसकी पृथक् द्रव्यता पर प्रश्नचिह्न उपस्थित होता है। दिगम्बर परम्परा में तो निर्विवाद रूप से काल को द्रव्य अंङ्गीकार किया गया है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में दो मत हैं। कुछ श्वेताम्बर जैन दार्शनिक काल को पृथक् द्रव्य अङ्गीकार करते हैं तथा कुछ नहीं। इन दोनों मतों का उल्लेख जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य में, हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि में, उपाध्याय विनयविजय की कृति लोकप्रकाश आदि ग्रन्थों संप्रात है । २४ काल की पृथक् द्रव्यता अस्वीकृति में तर्क : जो दार्शनिक काल की पृथक् द्रव्यता अङ्गीकार नहीं करते वे कहते हैं कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का पर्याय ही काल है, उसका पृथक् अस्तित्व असिद्ध है। इस मत के प्रतिपादन में व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में निरूपित भगवान् महावीर एवं गौतम गणधर के मध्य संवाद प्रमुख आधार है । २५ गौतम गणधर ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया- 'किमिदं भंते! काले त्ति पवुच्चति ।' भगवन् यह काल किसे कहा जाता है? भगवान् ने उत्तर दिया- जीवा चेव अजीवा चेव । अर्थात् काल जीव भी है और अजीव भी। जीवों की पर्याय रूप से यह काल जीवस्वरूप है एवं अजीव द्रव्यों की पर्याय रूप में यह अजीव रूप है। स्थानाङ्गसूत्र में भी कहा गया है- समयाति वा विलयति वा जीवाति वा अजीवाति वा पवुच्चति २५ अर्थात् जो पर्याय उत्पन्न होती है एवं विलीन होती है, वह जीव एवं अजीव पर्याय ही होती है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य में भी काल का जीव और अजीव द्रव्यों के पर्याय रूप में उल्लेख किया गया है। वहाँ पर कथन है- "सो वत्तणाइरूवो कालो दव्वस्स चेव पज्जाओ। २७ वह वर्तनादिस्वरूप काल द्रव्य की ही पर्याय है । हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि के टीकाकार मलयगिरि का भी कथन है कि काल जीव एवं अजीव द्रव्यों का पर्याय होता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। मलयगिरि के शब्दों में- "जीवादिवस्तु से व्यतिरिक्त काल नामक परिकल्पित पदार्थ प्रत्यक्ष से कहीं उपलब्ध नहीं होता है।' । २८ टीकाकार मलयगिरि
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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