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१० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११
काल से ही सूर्य उदित होता है तथा काल में ही निविष्ट होता है । नारायणोपनिषद् में काल को नारायण', शिवपुराण में काल को ईश्वर तथा विष्णुपुराण में उसे ब्रह्म का परम प्रधान रूप कहा गया है।" भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं -
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
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अर्थात् मैं लोक का क्षय करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ तथा इस समय लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ ।
कालवाद का प्रथम उल्लेख श्वेताश्वतरोपनिषद् में प्राप्त होता है- 'कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या " इसका तात्पर्य है कि काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, योनि, पुरुष आदि कारण हैं। ज्योतिर्विद्या में काल के आधार पर ही समस्त गणनाएँ की जाती हैं तथा जीवन की भूत-भविष्य की घटनाओं का आकलन काल के आधार पर किया जाता है। बुरे दिनों या अच्छे दिनों का आना आदि जनमान्यता, काल की कारणता को इंगित करती है। कालवाद की मान्यता के अनुसार काल ही सर्वविध कार्यों का कारण है।
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भारतीय दर्शनों में भी काल के स्वरूप एवं उसकी कारणता का प्रतिपादन हुआ है, किन्तु इनमें कालवाद की मान्यता से भिन्न प्रतिपादन है। वैशेषिक दर्शन में काल को एक द्रव्य माना गया है । "पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि "" सूत्र से स्पष्ट है कि काल एक द्रव्य है। काल का अनुमान ज्येष्ठत्व - कनिष्ठत्व, क्रम- यौगपद्य, चिर- क्षिप्र आदि प्रत्ययों से होता है।' वैशेषिक दर्शन के अनुसार काल नित्य है । संख्या में एक ही है। भूत, भविष्य और वर्तमान में इसे विभक्त किया जा सकता है। प्रशस्तपादभाष्य में कालों की संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग - इन पाँच गुणों से युक्त माना गया है । " वैशेषिक दर्शन में काल को सभी क्रियाओं का सामान्य कारण माना गया है, ऐसा 'कारणने काल: ११ सूत्र से सिद्ध होता है। काल निमित्त कारण बनता है, समवायी कारण नहीं।
न्यायदर्शन में बारह प्रमेय पदार्थों में काल की गणना नहीं की गयी है, किन्तु काल की सत्ता को स्वीकार अवश्य किया गया है । उदाहरणार्थ मन की सिद्धि करते हुए नैयायिक कहते हैं- “युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् ।' "१२ यहाँ युगपद् शब्द काल का बोधक है। प्रसंगवश एक स्थल पर अक्षपाद गौतम ने दिशा, देश, काल और आकाश की कारणता के सम्बन्ध में काल शब्द का प्रयोग भी किया है । १३