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________________ ५४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २०११ पारिवारिक सदस्य व मित्रगण सम्मिलित होते थे । प्रत्येक संस्कार शुभ नक्षत्र - ग्रह देखकर विधि-विधान से सम्पन्न कराया जाता था। जहाँ अन्नप्राशन में उसे अन्न ग्रहण कराया जाता था वहीं नामकरण में नाम रखा जाता। यहाँ ध्यातव्य है कि नाम भी गुणों के आधार पर रखे जाते थे। उदाहरणार्थ- "भगवान् महावीर जिस दिन त्रिशला के गर्भ में आए उनके कुल में सोने-चाँदी, रत्न, मणियों, मोतियों, मूंगों की वर्षा हुई अर्थात् उनके राजस्व में अपार वृद्धि हुई, जिससे उनका नाम वर्द्धमान रखा गया१३।” विपाकसूत्र के अनुसार - "गोत्रास (पशुओं को त्रास न देने वाला), अभग्नसेन (माँ के दोहद को भग्न न होने देने में सहायक), शकट (जन्म लेते ही सगड़ के नीचे रख दिया जाने वाला) आदि बालकों के नाम उनके गुणों के आधार पर रखे गये थे १४ । स्थानाङ्गसूत्र में दस प्रकार १५ के पुत्रों के नामोल्लेख मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं- आत्मज, क्षेत्रज, दत्तक, वैधक-विद्या, गुरुकालिक, औरस, मौखर, शौण्डीर, समबन्धित औपयाचितक, धर्मान्तेवासी । - अङ्ग साहित्य के अनुसार पुत्रों को माता-पिता का अपार स्नेह प्राप्त था। एक अन्य विवरण के अनुसार- "पुत्र माता - पिता हेतु प्रिय, कान्त, रत्न- आभूषणों, गुलर के फूलों सदृश्य था ।” ज्ञाताधर्मकथानुसार- "महावीर भगवान् का उपदेश सुनकर जब मेघकुमार ने श्रमणदीक्षा स्वीकार की तो उसकी माता अचेत होकर लकड़ी के लट्ठे की भाँति गिर पड़ी, होश आने पर करुणाजनक शब्दों में वह अपने पुत्र को संसार के विषय-भोगों का त्याग न करने के लिए बार-बार अनुरोध करने लगी १६ । इस प्रकार के अनेक प्रसङ्ग अङ्ग साहित्य में मिलते हैं, जो माता-पिता व बच्चों के मध्य मधुर सम्बन्धों को दर्शाते हैं। पुत्री पुत्री नारी जीवन का प्रारम्भिक रूप होती है जिससे वह समाज में प्रवेश करती है । जैन परम्परा में वह सम्मानित थी । पुत्रों की भाँति माता-पिता का पुत्री के प्रति भी अपार स्नेह होता था। यद्यपि उत्तराधिकार के सम्बन्ध में उसे पुत्रों की अपेक्षा कम अधिकार प्राप्त था परन्तु इसका अर्थ यह न था कि वह पूर्णतः उपेक्षित थी । पुत्रों की भाँति पुत्रियों के जन्म पर अनेक उत्सवों का आयोजन किया जाता था। संस्कार सम्बन्धी सभी दायित्व भी पूरी निष्ठा के साथ सम्पन्न किया जाता था । प्रायः जातकर्म संस्कार, नामकर्म, अठाई महोत्सव आदि का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता था१७। वर्षगाँठ के अवसर पर कन्याओं को पुष्पों व नये वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर सम्मानित किया जाता था । पुत्रियाँ स्वतंत्रापूर्वक जीवन व्यतीत करती थीं। यौवनावस्था (किशोर वय) के पूर्व तक कन्यायें लड़के तथा लड़कियों
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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