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________________ भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा : ९ उत्तम पशु हैं। २. वीरभाव- जो अद्वैतामृत की कणिका का आस्वादन करके अज्ञान-रज्जु को कुछ मात्रा में काटकर कृतकार्य होते हैं, वे वीरभाव में हैं। ३. दिव्यभाव- जो द्वैतभाव हटाकर अद्वैतानन्द का आस्वादन करते हैं। ये उपास्य देवता की सत्ता में अपने को लीन कर देते हैं। ९. पाञ्चरात्र दर्शन (वैष्णव तन्त्र दर्शन) इस मत में जीव स्वभावत: सर्वशक्तिशाली, व्यापक तथा सर्वज्ञ है परन्तु ईश्वर की तिरोधानाशक्ति के कारण जीव अगु, अकिञ्चित्कर और किञ्चिज्ञ हो जाता है। ईश्वर जीवों की दीन-हीन दशा को देखकर करुणावश उनपर करुणा की वर्षा करते हैं। १०. शाक्त-तन्त्र दर्शन शाक्तधर्म का उद्देश्य जीवात्मा (उपासक) की परमात्मा (उपास्य) के साथ अभेदसिद्धि है। यह अद्वैतवाद का साधनमात्र है। सच्चा शाक्त वही है जो 'मैं ही ब्रह्म हूँ, सच्चिदानन्द स्वरूप हूँ तथा नित्यमुक्त स्वभाव वाला हूँ' ऐसा विचार करता है। कुछ शाक्त वेदानुयायी हैं और कुछ वेद बाह्य हैं। कुछ शाक्तों के वामाचारी (घृणिताचारी) होने से शाक्त बदनाम हैं अन्यथा शाक्तों में परब्रह्म सर्वज्ञ, शिव, स्वयंज्योति, निष्फल, अनादि-अनन्त, निर्विकार तथा सच्चिदानन्द रूप है२१॥ जीव अग्नि-स्फुलिङ्गवत् उससे जन्य है। ११. जैन दर्शन२२ इस दर्शन में शरीर, मन, प्राण आदि से सर्वथा भिन्न चैतन्य को आत्मा कहा गया है। शुद्ध आत्मा को अनन्त चतुष्टय (अनन्त सुख, अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन) से सम्पन्न माना गया है। संसारावस्था में आठ प्रकार के कर्मों से आवृत्त होने के कारण उसके चारों विशेष गुण आंशिक रूप से प्रकट होते हैं। जब आत्मा कर्मों के आवरण को तप-साधना के द्वारा पूर्णरूपेण हटा देता है तो उसके ये चारों विशेष गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। संसारावस्था में आत्मा के ये गुण उसी प्रकार तिरोहित रहते हैं जिस प्रकार बादलों के द्वारा सूर्य का प्रकाश तिरोहित हो जाता है और बादलों के हटने पर सूर्य का पूर्ण प्रकाश प्रकट हो जाता है। एकेन्द्रियादि जीवों की सुषुप्ति आदि सभी अवस्थाओं में ज्ञानादि गुणों का उसके साथ कभी भी अभाव नहीं होता है। अत: कहा है उपयोग' जीव का लक्षण है और वह दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। जीवों की राशि अनन्त है और उसमें परिणामी-नित्यता (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) पायी जाती है। इसमें ऊर्ध्वगमन स्वभाव माना जाता है। अत: जीव मुक्त होने पर लोकान्त तक ऊर्ध्वगमन करके स्थिर हो जाता है। अरूपी होने से वह हमारी
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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